इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः ।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ॥ १२ ॥
शब्दार्थ
इष्टान् – वांछित; भोगान् – जीवन की आवश्यकताएँ; हि – निश्चय; वः – तुम्हें; देवाः – देवतागण; दास्यन्ते – प्रदान करेंगे; यज्ञ-भाविताः – यज्ञ सम्पन्न करने से प्रसन्न होकर; तैः – उनके द्वारा; दत्तान् – प्रदत्त वस्तुएँ; अप्रदाय – बिना भेंट किये; एभ्यः – इन देवताओं को; यः – जो; भुङ्क्ते - भोग करता है; स्तेनः – चोर; एव – निश्चय ही; सः – वह ।
भावार्थ
जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ सम्पन्न होने पर प्रसन्न होकर तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे । किन्तु जो इन उपहारों को देवताओं को अर्पित किये बिना भोगता है, वह निश्चित रूप से चोर है ।
तात्पर्य
देवतागण भगवान् विष्णु द्वारा भोग-सामग्री प्रदान करने के लिए अधिकृत किये गये हैं । अतः नियत यज्ञों द्वारा उन्हें अवश्य संतुष्ट करना चाहिए । वेदों में विभिन्न देवताओं के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के यज्ञों की संस्तुति है, किन्तु वे सब अन्ततः भगवान् को ही अर्पित किये जाते हैं । किन्तु जो यह नहीं समझ सकता कि भगवान् क्या हैं, उसके लिए देवयज्ञ का विधान है । अनुष्ठानकर्ता के भौतिक गुणों के अनुसार वेदों में विभिन्न प्रकार के यज्ञों का विधान है । विभिन्न देवताओं की पूजा भी उसी आधार पर अर्थात् गुणों के अनुसार की जाती है । उदाहरणार्थ, मांसाहारियों को देवी काली की पूजा करने के लिए कहा जाता है, जो भौतिक प्रकृति की घोर रूपा हैं और देवी के समक्ष पशुबलि का आदेश है । किन्तु जो सतोगुणी हैं उनके लिए विष्णु की दिव्य पूजा बताई जाती है । अन्ततः समस्त यज्ञों का ध्येय उत्तरोत्तर दिव्य-पद प्राप्त करना है । सामान्य व्यक्तियों के लिए कम से कम पाँच यज्ञ आवश्यक हैं, जिन्हें पञ्चमहायज्ञ कहते हैं ।
किन्तु मनुष्य को यह जानना चाहिए कि जीवन की सारी आवश्यकताएँ भगवान् के देवता प्रतिनिधियों द्वारा ही पूरी की जाती हैं । कोई कुछ बना नहीं सकता । उदाहरणार्थ, मानव समाज के भोज्य पदार्थों को लें । इन भोज्य पदार्थों में शाकाहारियों के लिए अन्न, फल, शाक, दूध, चीनी आदि हैं तथा मांसाहारियों के लिए मांसादि जिनमें से कोई भी पदार्थ मनुष्य नहीं बना सकता । एक और उदाहरण लें-यथा ऊष्मा, प्रकाश, जल, वायु आदि जो जीवन के लिए आवश्यक हैं, इनमें से किसी को बनाया नहीं जा सकता । परमेश्वर के बिना न तो प्रचुर प्रकाश मिल सकता है, न चाँदनी, वर्षा या प्रातःकालीन समीर ही, जिनके बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता । स्पष्ट है कि हमारा जीवन भगवान् द्वारा प्रदत्त वस्तुओं पर आश्रित है । यहाँ तक कि हमें अपने उत्पादन-उद्यमों के लिए अनेक कच्चे मालों की आवश्यकता होती है यथा धातु, गंधक, पारद, मैंगनीज तथा अन्य अनेक आवश्यक वस्तुएँ जिनकी पूर्ति भगवान् के प्रतिनिधि इस उद्देश्य से करते हैं कि हम इनका समुचित उपयोग करके आत्म-साक्षात्कार के लिए अपने आपको स्वस्थ एवं पुष्ट बनायें जिससे जीवन का चरम लक्ष्य अर्थात् भौतिक जीवन-संघर्ष से मुक्ति प्राप्त हो सके । यज्ञ सम्पन्न करने से मानव जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त हो जाता है । यदि हम जीवन-उद्देश्य को भूल कर भगवान् के प्रतिनिधियों से अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए वस्तुएँ लेते रहेंगे और इस संसार में अधिकाधिक फँसते जायेंगे, जो कि सृष्टि का उद्देश्य नहीं है तो निश्चय ही हम चोर हैं और इस तरह हम प्रकृति के नियमों द्वारा दण्डित होंगे । चोरों का समाज कभी सुखी नहीं रह सकता क्योंकि उनका कोई जीवन-लक्ष्य नहीं होता । भौतिकतावादी चोरों का कभी कोई जीवन-लक्ष्य नहीं होता । उन्हें तो केवल इन्द्रियतृप्ति की चिन्ता रहती है, वे नहीं जानते कि यज्ञ किस तरह किये जाते हैं । किन्तु चैतन्य महाप्रभु ने यज्ञ सम्पन्न करने की सरलतम विधि का प्रवर्तन किया । यह है संकीर्तन-यज्ञ जो संसार के किसी भी व्यक्ति द्वारा, जो कृष्णभावनामृत के सिद्धान्तों को अंगीकार करता है, सम्पन्न किया जा सकता है ।