सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः ।
न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह ॥ ९ ॥
शब्दार्थ
सञ्जयः उवाच – संजय ने कहा; एवम् – इस प्रकार; उक्त्वा – कहकर; हृषीकेशम् – कृष्ण से, जो इन्द्रियों के स्वामी हैं; गुडाकेशः – अर्जुन, जो अज्ञान को मिटाने वाला है; परंतपः – अर्जुन, शत्रुओं का दमन करने वाला; न योत्स्ये – नहीं लड़ूँगा; इति – इस प्रकार; गोविन्दम् – इन्द्रियों के आनन्ददायक कृष्ण से; उक्त्वा – कहकर; तूष्णीम् – चुप; बभूव – हो गया; ह – निश्चय ही ।
भावार्थ
संजय ने कहा – इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” और चुप हो गया ।
तात्पर्य
धृतराष्ट्र को यह जानकर परम प्रसन्नता हुई होगी कि अर्जुन युद्ध न करके युद्धभूमि छोड़कर भिक्षाटन करने जा रहा है । किन्तु संजय ने उसे पुनः यह कह कर निराश कर दिया कि अर्जुन अपने शत्रुओं को मारने में सक्षम है (परन्तपः) । यद्यपि कुछ समय के लिए अर्जुन अपने पारिवारिक स्नेह के प्रति मिथ्या शोक से अभिभूत था, किन्तु उसने शिष्य रूप में अपने गुरु श्रीकृष्ण की शरण ग्रहण कर ली । इससे सूचित होता है कि शीघ्र ही वह इस शोक से निवृत्त हो जायेगा और आत्म-साक्षात्कार या कृष्णभावनामृत के पूर्ण ज्ञान से प्रकाशित होकर पुनः युद्ध करेगा । इस तरह धृतराष्ट्र का हर्ष भंग हो जायेगा ।