कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥ ७ ॥
शब्दार्थ
कार्पण्य – कृपणता; दोष – दुर्बलता से; उपहत – ग्रस्त; स्व-भावः – गुण, विशेषताएँ; पृच्छामि – पूछ रहा हूँ; त्वाम् – तुम से; धर्म – धर्म; सम्मूढ – मोहग्रस्त; चेताः – हृदय में; यत् – जो; श्रेयः – कल्याणकारी; स्यात् – हो; निश्र्चितम् – विश्वासपूर्वक; ब्रूहि – कहो; तत् – वह; मे – मुझको; शिष्यः – शिष्य; ते – तुम्हारा; अहम् – मैं; शाधि – उपदेश दीजिये; माम् – मुझको; त्वाम् – तुम्हारा; प्रपन्नम – शरणागत ।
भावार्थ
अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ । ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ । अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपका शरणागत हूँ । कृपया मुझे उपदेश दें ।
तात्पर्य
यह प्राकृतिक नियम है कि भौतिक कार्यकलाप की प्रणाली ही हर एक के लिए चिन्ता का कारण है । पग-पग पर उलझन मिलती है, अतः प्रामाणिक गुरु के पास जाना आवश्यक है, जो जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए समुचित पथ-निर्देश दे सके । समग्र वैदिक ग्रंथ हमें यह उपदेश देते हैं कि जीवन की अनचाही उलझनों से मुक्त होने के लिए प्रामाणिक गुरु के पास जाना चाहिए । ये उलझनें उस दावाग्नि के समान हैं जो किसी के द्वारा लगाये बिना भभक उठती हैं । इसी प्रकार विश्व की स्थिति ऐसी है कि बिना चाहे जीवन की उलझनें स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं । कोई नहीं चाहता कि आग लगे, किन्तु फिर भी वह लगती है और हम अत्यधिक व्याकुल हो उठते हैं । अतः वैदिक वाङमय उपदेश देता है कि जीवन की उलझनों को समझने तथा उनका समाधान करने के लिए हमें परम्परागत गुरु के पास जाना चाहिए । जिस व्यक्ति का प्रामाणिक गुरु होता है वह सब कुछ जानता है । अतः मनुष्य को भौतिक उलझनों में न रहकर गुरु के पास जाना चाहिए । यही इस श्लोक का तात्पर्य है ।
आखिर भौतिक उलझनों में कौन सा व्यक्ति पड़ता है ? वह जो जीवन की समस्याओं को नहीं समझता । बृहदारण्यक उपनिषद् में (३.८.१०) व्याकुल (व्यग्र) मनुष्य का वर्णन इस प्रकार हुआ है - यो वा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वास्मॉल्लोकात्गृति स कृपणः - “कृपण वह है जो मानव जीवन की समस्याओं को हल नहीं करता और आत्म-साक्षात्कार के विज्ञान को समझे बिना कूकर-सूकर की भाँति इस संसार को त्यागकर चला जाता है ।” जीव के लिए यह मनुष्य जीवन अत्यन्त मूल्यवान निधि है, जिसका उपयोग वह अपने जीवन की समस्याओं को हल करने में कर सकता है, अतः जो इस अवसर का लाभ नहीं उठाता वह कृपण है । ब्राह्मण इसके विपरीत होता है जो इस शरीर का उपयोग जीवन की समस्त समस्याओं को हल करने में करता है । य एतदक्षरं गार्गि विदित्वास्मॉल्लोकात्यैति स ब्राह्मणः । देहात्मबुद्धि वश कृपण या कंजूस लोग अपना सारा समय परिवार, समाज, देश आदि के अत्यधिक प्रेम में गँवा देते हैं । मनुष्य प्रायः चर्मरोग के आधार पर अपने पारिवारिक जीवन अर्थात् पत्नी, बच्चों तथा परिजनों में आसक्त रहता है । कृपण यह सोचता है कि वह अपने परिवार को मृत्यु से बचा सकता है अथवा वह यह सोचता है कि उसका परिवार या समाज उसे मृत्यु से बचा सकता है । ऐसी पारिवारिक आसक्ति निम्न पशुओं में भी पाई जाती है क्योंकि वे भी बच्चों की देखभाल करते हैं । बुद्धिमान् होने के कारण अर्जुन समझ गया था कि पारिवारिक सदस्यों के प्रति उसका अनुराग तथा मृत्यु से उनकी रक्षा करने की उसकी इच्छा ही उसकी उलझनों का कारण है । यद्यपि वह समझ रहा था कि युद्ध करने का कर्तव्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा था, किन्तु कृपण-दुर्बलता (कार्पण्यदोष) के कारण वह अपना कर्तव्य नहीं निभा रहा था । अतः वह परम गुरु भगवान् कृष्ण से कोई निश्चित हल निकालने का अनुरोध कर रहा है । वह कृष्ण का शिष्यत्व ग्रहण करता है । वह मित्रतापूर्ण बातें बन्द करना चाहता है । गुरु तथा शिष्य की बातें गम्भीर होती हैं और अब अर्जुन अपने मान्य गुरु के समक्ष गम्भीरतापूर्वक बातें करना चाहता है । इसीलिए कृष्ण भगवद्गीता-ज्ञान के आदि गुरु हैं और अर्जुन गीता समझने वाला प्रथम शिष्य है । अर्जुन भगवद्गीता को किस तरह समझता है यह गीता में वर्णित है । तो भी मूर्ख संसारी विद्वान् बताते हैं कि किसी को मनुष्य-रूप कृष्ण की नहीं बल्कि “अजन्मा कृष्ण” की शरण ग्रहण करनी चाहिए । कृष्ण के अन्तः तथा बाह्य में कोई अन्तर नहीं है । इस ज्ञान के बिना जो भगवद्गीता को समझने का प्रयास करता है, वह सबसे बड़ा मूर्ख है ।