गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुज्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् ॥ ५ ॥

शब्दार्थ

गुरुन् – गुरुजनों को; अहत्वा – न मार कर; हि – निश्चय ही; महा-अनुभवान् – महापुरुषों को; श्रेयः – अच्छा है; भोक्तुम् – भोगना; भैक्ष्यम् – भीख माँगकर; अपि – भी; इह – इस जीवन में; लोके – इस संसार में; हत्वा – मारकर; अर्थ – लाभ भी; कामान् – इच्छा से; तु – लेकिन; गुरुन् – गुरुजनों को; इह – इस संसार में; एव – निश्चय ही; भुञ्जीय – भोगने के लिए बाध्य; भोगान् – भोग्य वस्तुएँ; रुधिर – रक्त से; प्रदिग्धान् – सनी हुई, रंजित ।

भावार्थ

ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मार कर जीने की अपेक्षा इस संसार में भीख माँग कर खाना अच्छा है । भले ही वे सांसारिक लाभ के इच्छुक हों, किन्तु हैं तो गुरुजन ही! यदि उनका वध होता है तो हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु उनके रक्त से सनी होगी ।

तात्पर्य

शास्त्रों के अनुसार ऐसा गुरु जो निंद्य कर्म में रत हो और जो विवेकशून्य हो, त्याज्य है । दुर्योधन से आर्थिक सहायता लेने के कारण भीष्म तथा द्रोण उसका पक्ष लेने के लिए बाध्य थे, यद्यपि केवल आर्थिक लाभ से ऐसा करना उनके लिए उचित न था । ऐसी दशा में वे आचार्यों का सम्मान खो बैठे थे । किन्तु अर्जुन सोचता है कि इतने पर भी वे उसके गुरुजन हैं, अतः उनका वध करके भौतिक लाभों का भोग करने का अर्थ होगा - रक्त से सने अवशेषों का भोग ।