योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥ ४८ ॥
शब्दार्थ
योगस्थः – समभाव होकर; कुरु – करो; कर्माणि – अपने कर्म; सङ्गं – आसक्ति को; त्यक्त्वा – त्याग कर; धनञ्जय – हे अर्जुन; सिद्धि-असिद्धयोः – सफलता तथा विफलता में; समः – समभाव; भूत्वा – होकर; समत्वम् – समता; योगः – योग; उच्यते – कहा जाता है ।
भावार्थ
हे अर्जुन! जय अथवा पराजय की समस्त आसक्ति त्याग कर समभाव से अपना कर्म करो । ऐसी समता योग कहलाती है ।
तात्पर्य
कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि वह योग में स्थित होकर कर्म करे और योग है क्या ? योग का अर्थ है सदैव चंचल रहने वाली इन्द्रियों को वश में रखते हुए परमतत्त्व में मन को एकाग्र करना । और परमतत्त्व कौन है ? भगवान् ही परमतत्त्व हैं और चूँकि वे स्वयं अर्जुन को युद्ध करने के लिए कह रहे हैं, अतः अर्जुन को युद्ध के फल से कोई सरोकार नहीं है । जय या पराजय कृष्ण के लिए विचारणीय हैं, अर्जुन को तो बस श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार कर्म करना है । कृष्ण के निर्देश का पालन ही वास्तविक योग है और इसका अभ्यास कृष्णभावनामृत नामक विधि द्वारा किया जाता है । एकमात्र कृष्णभावनामृत के माध्यम से ही स्वामित्व भाव का परित्याग किया जा सकता है । इसके लिए उसे कृष्ण का दास या उनके दासों का दास बनना होता है । कृष्णभावनामृत में कर्म करने की यही एक विधि है जिससे योग में स्थित होकर कर्म किया जा सकता है ।
अर्जुन क्षत्रिय है, अतः वह वर्णाश्रम-धर्म का अनुयायी है । विष्णु-पुराण में कहा गया है कि वर्णाश्रम-धर्म का एकमात्र उद्देश्य विष्णु को प्रसन्न करना है । सांसारिक नियम है कि लोग पहले अपनी तुष्टि करते हैं, किन्तु यहाँ तो अपने को तुष्ट न करके कृष्ण को तुष्ट करना है । अतः कृष्ण को तुष्ट किये बिना कोई वर्णाश्रम-धर्म का पालन कर भी नहीं सकता । यहाँ पर परोक्ष रूप से अर्जुन को कृष्ण द्वारा बताई गई विधि के अनुसार कर्म करने का आदेश है ।