अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥ २५ ॥

शब्दार्थ

अव्यक्तः – अदृश्य; अयम् – यह आत्मा; अचिन्त्यः – अकल्पनीय; अयम् – यह आत्मा; अविकार्यः – अपरिवर्तित; अयम् – यह आत्मा; उच्यते – कहलाता है; तस्मात् – अतः; एवम् – इस प्रकार; विदित्वा – अच्छी तरह जानकर; एनम् – इस आत्मा के विषयमें; – नहीं; अनुशोचितुम् – शोक करने के लिए; अर्हसि – योग्य हो ।

भावार्थ

यह आत्मा अव्यक्त, अकल्पनीय तथा अपरिवर्तनीय कहा जाता है । यह जानकर तुम्हें शरीर के लिए शोक नहीं करना चाहिए ।

तात्पर्य

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे सर्वाधिक शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी यंत्र से भी नहीं देखा जा सकता, अतः यह अदृश्य है । जहाँ तक आत्मा के अस्तित्व का सम्बन्ध है, श्रुति के प्रमाण के अतिरिक्त अन्य किसी प्रयोग द्वारा इसके अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता । हमें इस सत्य को स्वीकार करना पड़ता है क्योंकि अनुभवगम्य सत्य होते हुए भी आत्मा के अस्तित्व को समझने के लिए कोई अन्य साधन नहीं है । हमें अनेक बातें केवल उच्च प्रमाणों के आधार पर माननी पड़ती हैं । कोई भी अपनी माता के आधार पर अपने पिता के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं कर सकता । पिता के स्वरूप को जानने का साधन या एकमात्र प्रमाण माता है । इसी प्रकार वेदाध्ययन के अतिरिक्त आत्मा को समझने का अन्य उपाय नहीं है । दूसरे शब्दों में, आत्मा मानवीय व्यावहारिक ज्ञान द्वारा अकल्पनीय है । आत्मा चेतना है और चेतन है - वेदों के इस कथन को हमें स्वीकार करना होगा । आत्मा में शरीर जैसे परिवर्तन नहीं होते । मूलतः अविकारी रहते हुए आत्मा अनन्त परमात्मा की तुलना में अणु-रूप है । परमात्मा अनन्त है और अणु-आत्मा अति सूक्ष्म है । अतः अति सूक्ष्म आत्मा अविकारी होने के कारण अनन्त आत्मा भगवान् के तुल्य नहीं हो सकता । यही भाव वेदों में भिन्न-भिन्न प्रकार से आत्मा के स्थायित्व की पुष्टि करने के लिए दुहराया गया है । किसी बात का दुहराना उस तथ्य को बिना किसी त्रुटि के समझने के लिए आवश्यक है ।