अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥ १८ ॥

शब्दार्थ

अन्त-वन्त – नाशवान; इमे – ये सब; देहाः – भौतिक शरीर; नित्यस्य – नित्य स्वरूप; उक्ताः – कहे जाते हैं; शरिरिणः – देहधारी जीव का; अनाशिनः – कभी नाश न होने वाला; अप्रमेयस्य – न मापा जा सकने योग्य; तस्मात् – अतः; युध्यस्व – युद्ध करो; भारत – हे भरतवंशी ।

भावार्थ

अविनाशी, अप्रमेय तथा शाश्वत जीव के भौतिक शरीर का अन्त अवश्यम्भावी है । अतः हे भरतवंशी! युद्ध करो ।

तात्पर्य

भौतिक शरीर स्वभाव से नाशवान है । यह तत्क्षण नष्ट हो सकता है और सौ वर्ष बाद भी । यह केवल समय की बात है । इसे अनन्त काल तक बनाये रखने की कोई सम्भावना नहीं है । किन्तु आत्मा इतना सूक्ष्म है कि इसे शत्रु देख भी नहीं सकता, मारना तो दूर रहा । जैसा कि पिछले श्लोक में कहा गया है, यह इतना सूक्ष्म है कि कोई इसके मापने की बात सोच भी नहीं सकता । अतः दोनों ही दृष्टि से शोक का कोई कारण नहीं है क्योंकि जीव जिस रूप में है, न तो उसे मारा जा सकता है, न ही शरीर को कुछ समय तक या स्थायी रूप से बचाया जा सकता है । पूर्ण आत्मा के सूक्ष्म कण अपने कर्म के अनुसार ही यह शरीर धारण करते हैं, अतः धार्मिक नियमों का पालन करना चाहिए । वेदान्त-सूत्र में जीव को प्रकाश बताया गया है क्योंकि वह परम प्रकाश का अंश है । जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश सारे ब्रह्माण्ड का पोषण करता है उसी प्रकार आत्मा के प्रकाश से इस भौतिक देह का पोषण होता है । जैसे ही आत्मा इस भौतिक शरीर से बाहर निकल जाता है, शरीर सड़ने लगता है, अतः आत्मा ही शरीर का पोषक है । शरीर अपने आप में महत्त्वहीन है । इसीलिए अर्जुन को उपदेश दिया गया कि वह युद्ध करे और भौतिक शारीरिक कारणों से धर्म की बलि न होने दे ।