दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
दुःखम् - दुखी; इति - इस प्रकार; एव - निश्चय ही; यत् - जो; कर्म - कार्य; काय - शरीर के लिए; क्लेश - कष्ट के; भयात् - भय से; त्यजेत् - त्याग देता है; सः - वह; कृत्वा - करके; राजसम् - रजोगुण में; त्यागम् - त्याग; न - नहीं; एव – निश्चय ही; त्याग – त्याग; फलम् - फल को; लभेत् - प्राप्त करता है ।
भावार्थ
जो व्यक्ति नियत कर्मों को कष्टप्रद समझ कर या शारीरिक क्लेश के भय से त्याग देता है, उसके लिए कहा जाता है कि उसने यह त्याग रजोगुण में किया है । ऐसा करने से कभी त्याग का उच्चफल प्राप्त नहीं होता ।
तात्पर्य
जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत को प्राप्त है, उसे इस भय से अर्थोपार्जन बन्द नहीं करना चाहिए कि वह सकाम कर्म कर रहा है । यदि कोई कार्य करके कमाये धन को कृष्णभावनामृत में लगाता है, या यदि कोई प्रातःकाल जल्दी उठकर दिव्य कृष्णभावनामृत को अग्रसर करता है, तो उसे चाहिए कि वह डर कर या यह सोचकर कि ऐसे कार्य कष्टप्रद हैं, उन्हें त्यागे नहीं । ऐसा त्याग राजसी होता है । राजसी कर्म का फल सदैव दुःखद होता है । यदि कोई व्यक्ति इस भाव से कर्म त्याग करता है, तो उसे त्याग का फल कभी नहीं मिल पाता ।