यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ ७८ ॥
शब्दार्थ
यत्र – जहाँ; योग-ईश्वरः – योग के स्वामी; कृष्णः – भगवान् कृष्ण; यत्र – जहाँ; पार्थः – पृथापुत्र; धनुः–धरः– धनुषधारी; तत्र – वहाँ; श्रीः – ऐश्वर्य; विजयः – जीत; भूतिः – विलक्षण शक्ति; ध्रुवा – निश्चित; नीतिः – नीति; मतिः मम – मेरा मत ।
भावार्थ
जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन है, वहीं ऐश्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है । ऐसा मेरा मत है ।
तात्पर्य
भगवद्गीता का शुभारम्भ धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से हुआ । वह भीष्म, द्रोण तथा कर्ण जैसे महारथियों की सहायता से अपने पुत्रों की विजय के प्रति आशावान था । उसे आशा थी कि विजय उसके पक्ष में होगी । लेकिन युद्धक्षेत्र के दृश्य का वर्णन करने के बाद संजय ने राजा से कहा “आप अपनी विजय की बात सोच रहे हैं, लेकिन मेरा मत है कि जहाँ कृष्ण तथा अर्जुन उपस्थित हैं, वहीं सम्पूर्ण श्री होगी ।” उसने प्रत्यक्ष पुष्टि की कि धृतराष्ट्र को अपने पक्ष की विजय की आशा नहीं रखनी चाहिए । विजय तो अर्जुन के पक्ष की निश्चित है, क्योंकि उसमें कृष्ण हैं । श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के सारथी का पद स्वीकार करना एक ऐश्वर्य का प्रदर्शन था । कृष्ण समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं और इनमें से वैराग्य एक है । ऐसे वैराग्य के भी अनेक उदाहरण प्राप्त हैं, क्योंकि कृष्ण वैराग्य के भी ईश्वर हैं ।
युद्ध तो वास्तव में दुर्योधन तथा युधिष्ठिर के बीच था । अर्जुन अपने ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर की ओर से लड़ रहा था । चूँकि कृष्ण तथा अर्जुन युधिष्ठिर की ओर थे अतएव युधिष्ठिर की विजय ध्रुव थी । युद्ध को यह निर्णय करना था कि संसार पर शासन कौन करेगा । संजय ने भविष्यवाणी की कि सत्ता युधिष्ठिर के हाथ में चली जाएगी । यहाँ पर इसकी भी भविष्यवाणी हुई है कि इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद युधिष्ठिर उत्तरोत्तर समृद्धि लाभ करेंगे, क्योंकि वे न केवल पुण्यात्मा तथा पवित्रात्मा थे, अपितु वे कठोर नीतिवादी थे । उन्होंने जीवन भर कभी असत्य भाषण नहीं किया था ।
ऐसे अनेक अल्पज्ञ व्यक्ति हैं, जो भगवद्गीता को युद्धस्थल में दो मित्रों की वार्ता के रूप में ग्रहण करते हैं । लेकिन इससे ऐसा ग्रंथ कभी शास्त्र नहीं बन सकता । कुछ लोग विरोध कर सकते हैं कि कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने के लिए उकसाया, जो अनैतिक है, लेकिन वास्तविकता तो यह है कि भगवद्गीता नीति का परम आदेश है । यह नीति विषयक आदेश नवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में है - मन्मना भव मद्भक्तः । मनुष्य को कृष्ण का भक्त बनना चाहिए और सारे धर्मों का सार है - कृष्ण की शरणागति (सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज) । भगवद्गीता का आदेश धर्म तथा नीति की परम विधि है । अन्य सारी विधियाँ भले ही शुद्ध करने वाली तथा इस विधि तक ले जाने वाली हों, लेकिन गीता का अन्तिम आदेश समस्त नीतियों तथा धर्मों का सार वचन है - कृष्ण की शरण ग्रहण करो या कृष्ण को आत्मसमर्पण करो । यह अठारहवें अध्याय का मत है ।
भगवद्गीता से हम यह समझ सकते हैं कि ज्ञान तथा ध्यान द्वारा अपनी अनुभूति एक विधि है, लेकिन कृष्ण की शरणागति सर्वोच्च सिद्धि है । यह भगवद्गीता के उपदेशों का सार है । वर्णाश्रम धर्म के अनुसार अनुष्ठानों (कर्मकाण्ड) का मार्ग, ज्ञान का गुह्य मार्ग हो सकता है । लेकिन धर्म के अनुष्ठान के गुह्य होने पर भी ध्यान तथा ज्ञान गुह्यतर हैं तथा पूर्ण कृष्णभावनाभावित होकर भक्ति में कृष्ण की शरणागति गुह्यतम उपदेश है । यही अठारहवें अध्याय का सार है ।
भगवद्गीता की अन्य विशेषता यह है कि वास्तविक सत्य भगवान् कृष्ण हैं । परम सत्य की अनुभूति तीन रूपों में होती है - निर्गुण ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा भगवान् श्रीकृष्ण । परम सत्य के पूर्ण ज्ञान का अर्थ है, कृष्ण का पूर्ण ज्ञान । यदि कोई कृष्ण को जान लेता है तो ज्ञान के सारे विभाग इसी ज्ञान के अंश हैं । कृष्ण दिव्य हैं क्योंकि वे अपनी नित्य अन्तरंगा शक्ति में स्थित रहते हैं । जीव उनकी शक्ति से प्रकट हैं और दो श्रेणी के होते हैं - नित्यबद्ध तथा नित्यमुक्त । ऐसे जीवों की संख्या असंख्य है और वे सब कृष्ण के मूल अंश माने जाते हैं । भौतिक शक्ति २४ प्रकार से प्रकट होती है । सृष्टि शाश्वत काल द्वारा प्रभावित है और बहिरंगाशक्ति द्वारा इसका सृजन तथा संहार होता है । यह दृश्य जगत पुनः पुनः प्रकट तथा अप्रकट होता रहता है ।
भगवद्गीता में पाँच प्रमुख विषयों की व्याख्या की गई है - भगवान्, भौतिक प्रकृति, जीव, शाश्वतकाल तथा सभी प्रकार के कर्म । सब कुछ भगवान् कृष्ण पर आश्रित है । परम सत्य की सभी धारणाएँ – निराकार ब्रह्म, अन्तर्यामी परमात्मा तथा अन्य दिव्य अनुभूतियाँ - भगवान् के ज्ञान की कोटि में सन्निहित हैं । यद्यपि ऊपर से भगवान्, जीव, प्रकृति तथा काल भिन्न प्रतीत होते हैं, लेकिन ब्रह्म से कुछ भी भिन्न नहीं है । लेकिन ब्रह्म सदैव समस्त वस्तुओं से भिन्न है । भगवान् चैतन्य का दर्शन है “अचिन्त्यभेदाभेद” । यह दर्शन पद्धति परम सत्य के पूर्णज्ञान से युक्त है ।
जीव अपने मूलरूप में शुद्ध आत्मा है । वह परमात्मा का एक परमाणु मात्र है । इस प्रकार भगवान् कृष्ण की उपमा सूर्य से दी जा सकती है और जीवों की सूर्यप्रकाश से । चूँकि सारे जीव कृष्ण की तटस्था शक्ति हैं, अतएव उनका संसर्ग भौतिक शक्ति (अपरा) या आध्यात्मिक शक्ति (परा) से होता है । दूसरे शब्दों में, जीव भगवान् की दो शक्तियों के मध्य में स्थित है और चूँकि उसका सम्बन्ध भगवान् की पराशक्ति से है, अतएव उसमें किंचित् स्वतन्त्रता रहती है । इस स्वतन्त्रता के सदुपयोग से ही वह कृष्ण के प्रत्यक्ष आदेश के अन्तर्गत आता है । इस प्रकार वह ह्लादिनी शक्ति की अपनी सामान्य दशा को प्राप्त होता है ।
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय “उपसंहारसंन्यास की सिद्धि” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।