नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ॥ ७३ ॥

शब्दार्थ

अर्जुनःउवाच – अर्जुन ने कहा; नष्टः – दूर हुआ; मोहः – मोह; स्मृति – स्मरण शक्ति; लब्धा – पुनः प्राप्त हुई; त्वत्-प्रसादात् – आपकी कृपा से; मया – मेरे द्वारा; अच्युत – हे अच्युत कृष्ण; स्थितः – स्थित; अस्मि – हूँ; गत – दूर हुए; सन्देहः – सारे संशय; करिष्ये – पूरा करूँगा; वचनम् – आदेश को; तव – तुम्हारे ।

भावार्थ

अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया । आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई । अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ ।

तात्पर्य

जीव जिसका प्रतिनिधित्व अर्जुन कर रहा है, उसका स्वरूप यह है कि वह परमेश्वर के आदेशानुसार कर्म करे । वह आत्मानुशासन (संयम) के लिए बना है । श्रीचैतन्य महाप्रभु का कहना है कि जीव का स्वरूप परमेश्वर के नित्य दास के रूप में है । इस नियम को भूल जाने के कारण जीव प्रकृति द्वारा बद्ध हो जाता है । लेकिन परमेश्वर की सेवा करने से वह ईश्वर का मुक्त दास बनता है । जीव का स्वरूप सेवक के रूप में है । उसे माया या परमेश्वर में से किसी एक की सेवा करनी होती है । यदि वह परमेश्वर की सेवा करता है, तो वह अपनी सामान्य स्थिति में रहता है । लेकिन यदि वह बाह्यशक्ति माया की सेवा करना पसन्द करता है, तो वह निश्चित रूप से बन्धन में पड़ जाता है । इस भौतिक जगत् में जीव मोहवश सेवा कर रहा है । वह काम तथा इच्छाओं से बँधा हुआ है, फिर भी वह अपने को जगत् का स्वामी मानता है । यही मोह कहलाता है । मुक्त होने पर पुरुष का मोह दूर हो जाता है और वह स्वेच्छा से भगवान् की इच्छानुसार कर्म करने के लिए परमेश्वर की शरण ग्रहण करता है । जीव को फाँसने का माया का अन्तिम पाश यह धारणा है कि वह ईश्वर है । जीव सोचता है कि अब वह बद्धजीव नहीं रहा, अब तो वह ईश्वर है । वह इतना मूर्ख होता है कि वह यह नहीं सोच पाता कि यदि वह ईश्वर होता तो इतना संशयग्रस्त क्यों रहता । वह इस पर विचार नहीं करता । इसलिए यही माया का अन्तिम पाश होता है । वस्तुतः माया से मुक्त होना भगवान् श्रीकृष्ण को समझना है और उनके आदेशानुसार कर्म करने के लिए सहमत होना है ।

इस श्लोक में मोह शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । मोह ज्ञान का विरोधी होता है । वास्तविक ज्ञान तो यह समझना है कि प्रत्येक जीव भगवान् का शाश्वत सेवक है । लेकिन जीव अपने को इस स्थिति में न समझकर सोचता है कि वह सेवक नहीं, अपितु इस जगत् का स्वामी है, क्योंकि वह प्रकृति पर प्रभुत्व जताना चाहता है । यह मोह भगवत्कृपा से या शुद्ध भक्त की कृपा से जीता जा सकता है । इस मोह के दूर होने पर मनुष्य कृष्णभावनामृत में कर्म करने के लिए राजी हो जाता है ।

कृष्ण के आदेशानुसार कर्म करना कृष्णभावनामृत है । बद्धजीव माया द्वारा मोहित होने के कारण यह नहीं जान पाता कि परमेश्वर स्वामी हैं, जो ज्ञानमय हैं और सर्वसम्पत्तिवान हैं । वे अपने भक्तों को जो कुछ चाहे दे सकते हैं । वे सब के मित्र हैं और भक्तों पर विशेष कृपालु रहते हैं । वे प्रकृति तथा समस्त जीवों के अधीक्षक हैं । वे अक्षय काल के नियन्त्रक हैं और समस्त ऐश्वर्यों एवं शक्तियों से पूर्ण हैं । भगवान् भक्त को आत्मसमर्पण भी कर सकते हैं । जो उन्हें नहीं जानता वह मोह के वश में है, वह भक्त नहीं बल्कि माया का सेवक बन जाता है । लेकिन अर्जुन भगवान् से भगवद्गीता सुनकर समस्त मोह से मुक्त हो गया । वह यह समझ गया कि कृष्ण केवल उसके मित्र ही नहीं बल्कि भगवान् हैं और वह कृष्ण को वास्तव में समझ गया । अतएव भगवद्गीता का पाठ करने का अर्थ है कृष्ण को वास्तविकता के साथ जानना । जब व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान होता है, तो वह स्वभावतः कृष्ण को आत्मसमर्पण करता है । जब अर्जुन समझ गया कि यह तो जनसंख्या की अनावश्यक वृद्धि को कम करने के लिए कृष्ण की योजना थी, तो उसने कृष्ण की इच्छानुसार युद्ध करना स्वीकार कर लिया । उसने पुनः भगवान् के आदेशानुसार युद्ध करने के लिए अपना धनुष-बाण ग्रहण कर लिया ।