सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः ।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ॥ ६४ ॥
शब्दार्थ
सर्व-गुह्य-तमम् - सबों में अत्यन्त गुह्य; भूयः - पुनः; शृणु - सुनो; मे - मुझसे; परमम् - परम; वचः - आदेश; इष्टःअसि - तुमप्रिय हो; मे - मेरे, मुझको; दृढम् - अत्यन्त; इति - इस प्रकार; ततः - अतएव; वक्ष्यामि - कह रहा हूँ; ते - तुम्हारे; हितम् - लाभ के लिए ।
भावार्थ
चूँकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय मित्र हो, अतएव मैं तुम्हें अपना परम आदेश, जो सर्वाधिक गुह्यज्ञान है, बता रहा हूँ । इसे अपने हित के लिए सुनो ।
तात्पर्य
अर्जुन को गुह्यज्ञान (ब्रह्मज्ञान) तथा गुह्यतरज्ञान (परमात्मा ज्ञान) प्रदान करने के बाद भगवान् अब उसे गुह्यतम ज्ञान प्रदान करने जा रहे हैं - यह है भगवान् के शरणागत होने का ज्ञान । नवें अध्याय के अन्त में उन्होंने कहा था - मन्मनाः - सदैव मेरा चिन्तन करो । उसी आदेश को यहाँ पर भगवद्गीता के सार के रूप में जोर देने के लिए दुहराया जा रहा है, यह सार सामान्यजन की समझ में नहीं आता । लेकिन जो कृष्ण को सचमुच अत्यन्त प्रिय है, कृष्ण का शुद्धभक्त है, वह समझ लेता है । सारे वैदिक साहित्य में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आदेश है । इस प्रसंग में जो कुछ कृष्ण कहते हैं, वह ज्ञान का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंश है और इसका पालन न केवल अर्जुन द्वारा होना चाहिए, अपितु समस्त जीवों द्वारा होना चाहिए ।