सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥ ५६ ॥
शब्दार्थ
सर्व – समस्त; कर्माणि – कार्यकलाप को; अपि – यद्यपि; सदा – सदैव; कुर्वाणः – करते हुए; मत्-व्यपाश्रयः – मेरे संरक्षण में; मत्-प्रसादात् – मेरी कृपा से; अवाप्नोति – प्राप्त करता है; शाश्वतम् – नित्य; पदम् – धाम को; अव्ययम् – अविनाशी ।
भावार्थ
मेरा शुद्ध भक्त मेरे संरक्षण में, समस्त प्रकार के कार्यों में संलग्न रह कर भी मेरी कृपा से नित्य तथा अविनाशी धाम को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य
मद्-व्यपाश्रयः शब्द का अर्थ है परमेश्वर के संरक्षण में । भौतिक कल्मष से रहित होने के लिए शुद्ध भक्त परमेश्वर या उनके प्रतिनिधि स्वरूप गुरु के निर्देशन में कर्म करता है । उसके लिए समय की कोई सीमा नहीं है । वह सदा, चौबीसों घंटे, शत प्रतिशत परमेश्वर के निर्देशन में कार्यों में संलग्न रहता है । ऐसे भक्त पर जो कृष्णभावनामृत में रत रहता है, भगवान् अत्यधिक दयालु होते हैं । वह समस्त कठिनाइयों के बावजूद अन्ततोगत्वा दिव्यधाम या कृष्णलोक को प्राप्त करता है । वहाँ उसका प्रवेश सुनिश्चित रहता है, इसमें कोई संशय नहीं है । उस परम धाम में कोई परिवर्तन नहीं होता, वहाँ प्रत्येक वस्तु शाश्वत, अविनश्वर तथा ज्ञानमय होती है ।