विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ ३८ ॥
शब्दार्थ
विषय – इन्द्रिय विषयों; इन्द्रिय – तथा इन्द्रियों के; संयोगात् – संयोग से; यत् – जो; तत् – वह; अग्रे – प्रारम्भ में; अमृत-उपमम् – अमृत के समान; परिणामे – अन्त में; विषम् इव – विष के समान; तत् – वह; सुखम् – सुख; राजसम् – राजसी; स्मृतम् – माना जाता है ।
भावार्थ
जो सुख इन्द्रियों द्वारा उनके विषयों के संसर्ग से प्राप्त होता है और जो प्रारम्भ में अमृततुल्य तथा अन्त में विषतुल्य लगता है, वह रजोगुणी कहलाता है ।
तात्पर्य
जब कोई युवक किसी युवती से मिलता है, तो इन्द्रियाँ युवक को प्रेरित करती हैं कि वह उस युवती को देखे, उसका स्पर्श करे और उससे संभोग करे । प्रारम्भ में इन्द्रियों को यह अत्यन्त सुखकर लग सकता है, लेकिन अन्त में या कुछ समय बाद वही विष तुल्य बन जाता है । तब वे विलग हो जाते हैं या उनमें तलाक (विवाह-विच्छेद) हो जाता है । फिर शोक, विषाद इत्यादि उत्पन्न होता है । ऐसा सुख सदैव राजसी होता है । जो सुख इन्द्रियों और विषयों के संयोग से प्राप्त होता है, वह सदैव दुःख का कारण बनता है, अतएव इससे सभी तरह से बचना चाहिए ।