यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन ।
प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ॥ ३४ ॥
शब्दार्थ
यया – जिससे; तु – लेकिन; धर्म – धार्मिकता; काम – इन्द्रियतृप्ति; अर्थान् – तथा आर्थिक विकास को; धृत्या – संकल्प या धृति से; धारयते – धारण करताहै; अर्जुन – हे अर्जुन; प्रसङगेन – आसक्ति के कारण; फल-आकाङ्क्षी – कर्मफल कीइच्छा करने वाला; धृतिः – संकल्प या धृति; सा – वह; पार्थ – हे पृथापुत्र; राजसी – रजोगुणी ।
भावार्थ
लेकिन हे अर्जुन! जिस धृति से मनुष्य धर्म, अर्थ तथा काम के फलों में लिप्त बना रहता है, वह राजसी है ।
तात्पर्य
जो व्यक्ति धार्मिक या आर्थिक कार्यों में कर्मफलों का सदैव आकांक्षी होता है, जिसकी एकमात्र इच्छा इन्द्रियतृप्ति होती है तथा जिसका मन, जीवन तथा इन्द्रियाँ इस प्रकार संलग्न रहती हैं, वह रजोगुणी होता है ।