मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः ।
सिद्ध्यसिद्ध्योर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ॥ २६ ॥
शब्दार्थ
मुक्त-सङगः – सारे भौतिक संसर्ग से मुक्त; अनहम्-वादी – मिथ्या अहंकार से रहित; धृति – संकल्प; उत्साह – तथा उत्साह सहित; समन्वितः – योग्य; सिद्धि – सिद्धि; असिद्धयोः – तथा विफलता में; निर्विकारः – बिना परिवर्तन के; कर्ता – कर्ता; सात्त्विकः – सतोगुणी; उच्यते – कहा जाता है ।
भावार्थ
जो व्यक्ति भौतिक गुणों के संसर्ग के बिना अहंकाररहित, संकल्प तथा उत्साहपूर्वक अपना कर्म करता है और सफलता अथवा असफलता में अविचलित रहता है, वह सात्त्विक कर्ता कहलाता है ।
तात्पर्य
कृष्णभावनामय व्यक्ति सदैव प्रकृति के गुणों से अतीत होता है । उसे अपने को सौंपे गये कर्म के परिणाम की कोई आकांक्षा नहीं रहती, क्योंकि वह मिथ्या अहंकार तथा घमंड से परे होता है । फिर भी कार्य के पूर्ण होने तक वह सदैव उत्साह से पूर्ण रहता है । उसे होने वाले कष्टों की कोई चिन्ता नहीं होती, वह सदैव उत्साहपूर्ण रहता है । वह सफलता या विफलता की परवाह नहीं करता, वह सुख-दुःख में समभाव रहता है । ऐसा कर्ता सात्त्विक है ।