यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् ।
अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम् ॥ २२ ॥
शब्दार्थ
यत् - जो; तु - लेकिन; कृत्स्नवत् - पूर्ण रूप से; एकस्मिन् - एक; कार्य - कार्य में; सक्तम् - आसक्त; अहैतुकम् - बिना हेतु के; अतत्त्व-अर्थ-वत् - वास्तविकता के ज्ञान से रहित; अल्पम् - अति तुच्छ; च - तथा; तत् - वह; तामसम् - तमोगुणी; उदाहृतम् - कहा जाता है ।
भावार्थ
और वह ज्ञान, जिससे मनुष्य किसी एक प्रकार के कार्य को, जो अति तुच्छ है, सब कुछ मान कर, सत्य को जाने बिना उसमें लिप्त रहता है, तामसी कहा जाता है ।
तात्पर्य
सामान्य मनुष्य का ‘ज्ञान’ सदैव तामसी होता है, क्योंकि प्रत्येक बद्धजीव तमोगुण में ही उत्पन्न होता है । जो व्यक्ति प्रमाणों से या शास्त्रीय आदेशों के माध्यम से ज्ञान अर्जित नहीं करता, उसका ज्ञान शरीर तक ही सीमित रहता है । उसे शास्त्रों के आदेशानुसार कार्य करने की चिन्ता नहीं होती । उसके लिए धन ही ईश्वर है और ज्ञान का अर्थ शारीरिक आवश्यकताओं की तुष्टि है । ऐसे ज्ञान का परम सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता । यह बहुत कुछ साधारण पशुओं के ज्ञान यथा खाने, सोने, रक्षा करने तथा मैथुन करने का ज्ञान जैसा है । ऐसे ज्ञान को यहाँ पर तमोगुण से उत्पन्न बताया गया है । दूसरे शब्दों में, इस शरीर से परे आत्मा सम्बन्धी ज्ञान सात्त्विक ज्ञान कहलाता है । जिस ज्ञान से लौकिक तर्क तथा चिन्तन (मनोधर्म) द्वारा नाना प्रकार के सिद्धान्त तथा वाद जन्म लें, वह राजसी है और शरीर को सुखमय बनाये रखने वाले ज्ञान को तामसी कहा जाता है ।