सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥ २० ॥
शब्दार्थ
सर्व-भूतेषु - समस्त जीवों में; येन - जिससे; एकम् - एक; भावम् - स्थिति; अव्ययम् - अविनाशी; ईक्षते - देखता है; अविभक्तम् - अविभाजित; विभक्तेषु - अनन्त विभागों में बँटे हुए में; तत् - उस; ज्ञानम् - ज्ञान को; विद्धि - जानो; सात्त्विकम् - सतोगुणी ।
भावार्थ
जिस ज्ञान से अनन्त रूपों में विभक्त सारे जीवों में एक ही अविभक्त आध्यात्मिक प्रकृति देखी जाती है, उसे ही तुम सात्त्विक जानो ।
तात्पर्य
जो व्यक्ति हर जीव में, चाहे वह देवता हो, मनुष्य हो, पशु-पक्षी हो या जलजन्तु अथवा पौधा हो, एक ही आत्मा को देखता है, उसे सात्त्विक ज्ञान प्राप्त रहता है । समस्त जीवों में एक ही आत्मा है, यद्यपि पूर्व कर्मों के अनुसार उनके शरीर भिन्न-भिन्न हैं । जैसा कि सातवें अध्याय में वर्णन हुआ है, प्रत्येक शरीर में जीवनी शक्ति की अभिव्यक्ति परमेश्वर की पराप्रकृति के कारण होती है । उस एक पराप्रकृति, उस जीवनी शक्ति को प्रत्येक शरीर में देखना सात्त्विक दर्शन है । यह जीवनी शक्ति अविनाशी है, भले ही शरीर विनाशशील हों । जो आपसी भेद है, वह शरीर के कारण है । चूँकि बद्धजीवन में अनेक प्रकार के भौतिक रूप हैं, अतएव जीवनी शक्ति विभक्त प्रतीत होती है । ऐसा निराकार जान आत्म-साक्षात्कार का एक पहलू है ।