न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ॥ १० ॥

शब्दार्थ

- नहीं; द्वेष्टि - घृणा करता है; अकुशलम् - अशुभ; कर्म - कर्म; कुशले - शुभ में; - न तो; अनुषज्जते - आसक्त होता है; त्यागी - त्यागी; सत्त्व - सतोगुण में; समविष्टः - लीन; मेधावी - बुद्धिमान; छिन्न - छिन्न हुए; संशयः - समस्त संशय या संदेह ।

भावार्थ

सतोगुण में स्थित बुद्धिमान त्यागी, जो न तो अशुभ कर्म से घृणा करता है, न शुभकर्म से लिप्त होता है, वह कर्म के विषय में कोई संशय नहीं रखता ।

तात्पर्य

कृष्णभावनाभावित व्यक्ति या सतोगुणी व्यक्ति न तो किसी व्यक्ति से घृणा करता है, न अपने शरीर को कष्ट देने वाली किसी बात से । वह उपयुक्त स्थान पर तथा उचित समय पर, बिना डरे, अपना कर्तव्य करता है । ऐसे व्यक्ति को, जो अध्यात्म को प्राप्त है, सर्वाधिक बुद्धिमान तथा अपने कर्मों में संशयरहित मानना चाहिए ।