तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥ २५ ॥
शब्दार्थ
तत् - वह; इति - इस प्रकार; अनभिसन्धाय - बिना इच्छा किये; फलम् - फल; यज्ञ - यज्ञ; तपः - तथा तप की; क्रियाः - क्रियाएँ; च - भी; विविधाः - विभिन्न; क्रियन्ते - की जाती है; मोक्ष-काङ्क्षिभिः - मोक्ष चाहने वालों के द्वारा ।
भावार्थ
मनुष्य को चाहिए कि कर्मफल की इच्छा किये बिना विविध प्रकार के यज्ञ, तप तथा दान को ‘तत्’ शब्द कह कर सम्पन्न करे । ऐसी दिव्य क्रियाओं का उद्देश्य भव-बन्धन से मुक्त होना है ।
तात्पर्य
आध्यात्मिक पद तक उठने के लिए मनुष्य को चाहिए कि किसी लाभ के निमित्त कर्म न करे । सारे कार्य भगवान् के परम धाम वापस जाने के उद्देश्य से किये जायँ, जो चरम उपलब्धि है ।