यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥ २१ ॥
शब्दार्थ
यत् - जो; तु - लेकिन; प्रति-उपकार-अर्थम् - बदले में पाने के उद्देशय से; फलम् - फल को; उद्दिश्य - इच्छा करके; वा - अथवा; पुनः - फिर; दीयते - दिया जाता है; च - भी; परिक्लिष्टम् - पश्चाताप के साथ; तत् - उस; दानम् - दान को; राजसम् - रजोगुणी; स्मृतम् - माना जाता है ।
भावार्थ
किन्तु जो दान प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छापूर्वक किया जाता है, वह रजोगुणी (राजस) कहलाता है ।
तात्पर्य
दान कभी स्वर्ग जाने के लिए दिया जाता है, तो कभी अत्यन्त कष्ट से तथा कभी इस पश्चात्ताप के साथ कि “मैंने इतना व्यय इस तरह क्यों किया ?” कभी-कभी अपने वरिष्ठजनों के दबाव में आकर भी दान दिया जाता है । ऐसे दान रजोगुण में दिये गये माने जाते हैं ।
ऐसे अनेक दातव्य न्यास हैं, जो उन संस्थाओं को दान देते हैं, जहाँ इन्द्रियभोग का बाजार गर्म रहता है । वैदिक शास्त्र ऐसे दान की संस्तुति नहीं करते । केवल सात्त्विक दान की संस्तुति की गई है ।