एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः ।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम् ॥ २२ ॥
शब्दार्थ
एतैः - इनसे; विमुक्तः - मुक्त होकर; कौन्तेय - हे कुन्तीपुत्र; तमः-द्वारै - अज्ञान के द्वारों से; त्रिभिः - तीन प्रकार के; नरः - व्यक्ति; आचरति - करता है; आत्मनः - अपने लिए; श्रेयः - मंगल, कल्याण; ततः - तत्पश्चात्; याति - जाता है; पराम् - परम; गतिम् - गन्तव्य को ।
भावार्थ
हे कुन्तीपुत्र! जो व्यक्ति इन तीनों नरक-द्वारों से बच पाता है, वह आत्म-साक्षात्कार के लिए कल्याणकारी कार्य करता है और इस प्रकार क्रमशः परम गति को प्राप्त होता है ।
तात्पर्य
मनुष्य को मानव-जीवन के तीन शत्रुओं - काम, क्रोध तथा लोभ - से अत्यन्त सावधान रहना चाहिए । जो व्यक्ति जितना ही इन तीनों से मुक्त होगा, उतना ही उसका जीवन शुद्ध होगा । तब वह वैदिक साहित्य में आदिष्ट विधि-विधानों का पालन कर सकता है । इस प्रकार मानव जीवन के विधि-विधानों का पालन करते हुए वह अपने आपको धीरे-धीरे आत्म-साक्षात्कार के पद पर प्रतिष्ठित कर सकता है । यदि वह इतना भाग्यशाली हुआ कि इस अभ्यास से कृष्णभावनामृत के पद तक उठ सके तो उसकी सफलता निश्चित है । वैदिक साहित्य में कर्म तथा कर्मफल की विधियों का आदेश है, जिससे मनुष्य शुद्धि की अवस्था (संस्कार) तक पहुँच सके । सारी विधि काम, क्रोध तथा लोभ के परित्याग पर आधारित है । इस विधि का ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य आत्म-साक्षात्कार के उच्चपद तक उठ सकता है और इस आत्म-साक्षात्कार की पूर्णता भक्ति में है । भक्ति में बद्धजीव की मुक्ति निश्चित है । इसीलिए वैदिक पद्धति के अनुसार चार आश्रमों तथा चार वर्णों का विधान किया गया है । विभिन्न जातियों (वर्णो`) के लिए विभिन्न विधि-विधानों की व्यवस्था है । यदि मनुष्य उनका पालन कर पाता है, तो वह स्वतः ही आत्म-साक्षात्कार के सर्वोच्चपद को प्राप्त कर लेता है । तब उसकी मुक्ति में कोई सन्देह नहीं रह जाता ।