श्रीभगवानुवाच
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ १ ॥
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् ।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥ २ ॥
तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता ।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥ ३ ॥
शब्दार्थ
श्रीभगवान् उवाच - भगवान् ने कहा; अभवम् - निर्भयता; सत्त्व-संशुद्धिः - अपने अस्तित्व की शुद्धि; ज्ञान - ज्ञान में; योग - संयुक्त होने की; व्यवस्थितिः - स्थिति; दानम् - दान; दमः - मन का निग्रह; च - तथा; यज्ञ - यज्ञ की सम्पन्नता; च - तथा; स्वाध्यायः - वैदिक ग्रन्थों का अध्ययन; तपः - तपस्या; आर्जवम् - सरलता; अहिंसा - अहिंसा; सत्यम् - सत्यता; अक्रोधः - क्रोध से मुक्ति; त्यागः - त्याग; शान्तिः - मनःशान्ति; अपैशुनम् - छिद्रान्वेषण से अरुचि; भूतेषु - समस्त जीवों के प्रति; अलोलुप्त्वम् - लोभ से मुक्ति; मार्दवम् - भद्रता; ह्नीः - लज्जा; अचापलम् - संकल्प; तेजः - तेज, बल; क्षमा - क्षमा; धृतिः - धैर्य; शौचम् - पवित्रता; अद्रोहः - ईर्ष्या से मुक्ति; न - नहीं; अति-मानिता - सम्मान की आशा; भवन्ति - हैं; सम्पदम् - गुण; देवीम् - दिव्य स्वभाव; अभिजातस्य - उत्पन्न हुए का; भरत - हे भरतपुत्र ।
भावार्थ
भगवान् ने कहा - हे भरतपुत्र! निर्भयता, आत्मशुद्धि, आध्यात्मिक ज्ञान का अनुशीलन, दान, आत्म-संयम, यज्ञपरायणता, वेदाध्ययन, तपस्या, सरलता, अहिंसा, सत्यता, क्रोधविहीनता, त्याग, शान्ति, छिद्रान्वेषण में अरुचि, समस्त जीवों पर करुणा, लोभविहीनता, भद्रता, लज्जा, संकल्प, तेज, क्षमा, धैर्य, पवित्रता, ईर्ष्या तथा सम्मान की अभिलाषा से मुक्ति-ये सारे दिव्य गुण हैं, जो दैवी प्रकृति से सम्पन्न देवतुल्य पुरुषों में पाये जाते हैं ।
तात्पर्य
पन्द्रहवें अध्याय के प्रारम्भ में इस भौतिक जगत् रूपी अश्वत्थ वृक्ष की व्याख्या की गई थी । उससे निकलने वाली अतिरिक्त जड़ों की तुलना जीवों के शुभ तथा अशुभ कर्मों से की गई थी । नवें अध्याय में भी देवों तथा असुरों का वर्णन हुआ है । अब, वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार, सतोगुण में किये गये सारे कार्य मुक्तिपथ में प्रगति करने के लिए शुभ माने जाते हैं और ऐसे कार्यों को दैवी प्रकृति कहा जाता है । जो लोग इस दैवीप्रकृति में स्थित होते हैं, वे मुक्ति के पथ पर अग्रसर होते हैं । इसके विपरीत उन लोगों के लिए, जो रजो तथा तमोगुण में रहकर कार्य करते हैं, मुक्ति की कोई सम्भावना नहीं रहती । उन्हें या तो मनुष्य की तरह इसी भौतिक जगत् में रहना होता है या फिर वे पशुयोनि में या इससे भी निम्न योनियों में अवतरित होते हैं । इस सोलहवें अध्याय में भगवान् दैवीप्रकृति तथा उसके गुणों एवं आसुरी प्रकृति तथा उसके गुणों का समान रूप से वर्णन करते हैं । वे इन गुणों के लाभों तथा हानियों का भी वर्णन करते हैं ।
दिव्यगुणों या दैवीप्रवृत्तियों से युक्त उत्पन्न व्यक्ति के प्रसंग में प्रयुक्त अभिजातस्य शब्द बहुत सार-गर्भित है । दैवी परिवेश में सन्तान उत्पन्न करने को वैदिक शास्त्रों में गर्भाधान संस्कार कहा गया है । यदि माता-पिता चाहते हैं कि दिव्यगुणों से युक्त सन्तान उत्पन्न हो, तो उन्हें सामाजिक जीवन में मनुष्यों के लिए बताये गये दस नियमों का पालन करना चाहिए । भगवद्गीता में हम पहले ही पढ़ चुके हैं कि अच्छी सन्तान उत्पन्न करने के निमित्त मैथुन-जीवन साक्षात् कृष्ण है । मैथुन-जीवन गर्हित नहीं है, यदि इसका कृष्णभावनामृत में प्रयोग किया जाय । जो लोग कृष्णभावनामृत में हैं, कम से कम उन्हें तो कुत्ते-बिल्लियों की तरह सन्तानें उत्पन्न नहीं करनी चाहिए । उन्हें ऐसी सन्तानें उत्पन्न करनी चाहिए जो जन्म लेने के पश्चात् कृष्णभावनाभावित हो सकें । कृष्णभावनामृत में तल्लीन माता-पिता से उत्पन्ना सन्तानों को इतना लाभ तो मिलना ही चाहिए ।
वर्णाश्रमधर्म नामक सामाजिक संस्था - जो समाज को सामाजिक जीवन के चार विभागों एवं काम-धन्धों अथवा वर्णों के चार विभागों में विभाजित करती है - मानव समाज को जन्म के अनुसार विभाजित करने के उद्देश्य से नहीं है । ऐसा विभाजन शैक्षिक योग्यताओं के आधार पर किया जाता है । ये विभाजन समाज में शान्ति तथा सम्पन्नता बनाये रखने के लिए हैं । यहाँ पर जिन गुणों का उल्लेख हुआ है, उन्हें दिव्य कहा गया है और वे आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करने वाले व्यक्तियों के निमित्त हैं, जिससे वे भौतिक जगत् से मुक्त हो सकें ।
वर्णाश्रम संस्था में संन्यासी को समस्त सामाजिक वर्गों तथा आश्रमों में प्रधान या गुरु माना जाता है । ब्राह्मण को समाज के तीन वर्णों - क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों - का गुरु माना जाता है, लेकिन संन्यासी इस संस्था के शीर्ष पर होता है और ब्राह्मणों का भी गुरु माना जाता है । संन्यासी की पहली योग्यता निर्भयता होनी चाहिए । चूँकि संन्यासी को किसी सहायक के बिना एकाकी रहना होता है, अतएव भगवान् की कृपा ही उसका एकमात्र आश्रय होता है । जो यह सोचता है कि सारे सम्बन्ध तोड लेने के बाद मेरी रक्षा कौन करेगा, तो उसे संन्यास आश्रम स्वीकार नहीं करना चाहिए । उसे यह पूर्ण विश्वास होना चाहिए कि कृष्ण या अन्तर्यामी स्वरूप परमात्मा सदैव अन्तर में रहते हैं, वे सब कुछ देखते रहते हैं और जानते हैं कि कोई क्या करना चाहता है । इस तरह मनुष्य को दृढ़विश्वास होना चाहिए कि परमात्मा स्वरूप कृष्ण शरणागत व्यक्ति की रक्षा करेंगे । उसे सोचना चाहिए “मैं कभी अकेला नहीं हूँ, भले ही मैं गहनतम जंगल में क्यों न रहूँ । मेरा साथ कृष्ण देंगे और सब तरह से मेरी रक्षा करेंगे ।” ऐसा विश्वास अभयम् या निर्भयता कहलाता है । संन्यास आश्रम में व्यक्ति की ऐसी मनोदशा आवश्यक है ।
तब उसे अपने अस्तित्व को शुद्ध करना होता है । संन्यास आश्रम में पालन किये जाने के लिए अनेक विधि-विधान हैं । इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि संन्यासी को किसी स्त्री के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए । उसे एकान्त स्थान में स्त्री से बातें करने तक की मनाही है । भगवान् चैतन्य आदर्श संन्यासी थे और जब वे पुरी में रह रहे थे, तो उनकी भक्तिनों को उनके पास नमस्कार करने तक के लिए नहीं आने दिया जाता था । उन्हें दूर से ही प्रणाम करने के लिए आदेश था । यह स्त्री जाति के प्रति घृणाभाव का चिह्न नहीं था, अपितु संन्यासी पर लगाया गया प्रतिबन्ध था कि उसे स्त्रियों से निकट सम्पर्क नहीं रखना चाहिए । मनुष्य को अपने अस्तित्व को शुद्ध बनाने के लिए जीवन की विशेष परिस्थिति (स्तर) में विधि-विधानों का पालन करना होता है । संन्यासी के लिए स्त्रियों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध तथा इन्द्रियतृप्ति के लिए धन-संग्रह वर्जित हैं । आदर्श संन्यासी तो स्वयं भगवान् चैतन्य थे और उनके जीवन से हमें यह सीख लेनी चाहिए कि वे स्त्रियों के विषय में कितने कठोर थे । यद्यपि वे भगवान् के सबसे वदान्य अवतार माने जाते हैं, क्योंकि वे अधम से अधम बद्ध जीवों को स्वीकार करते थे, लेकिन जहाँ तक स्त्रियों की संगति का प्रश्न था, वे संन्यास आश्रम के विधि-विधानों का कठोरता के साथ पालन करते थे । उनका एक निजी पार्षद, छोटा हरिदास, अन्य पार्षदों के सहित उनके साथ निरन्तर रहा, लेकिन किसी कारणवश उसने एक तरुणी को कामुक दृष्टि से देखा । भगवान् चैतन्य इतने कठोर थे कि उन्होंने उसे अपने पार्षदों की संगति से तुरन्त बाहर निकाल दिया । भगवान् चैतन्य ने कहा, “जो संन्यासी या अन्य कोई व्यक्ति प्रकृति के चंगुल से छूटने का इच्छुक है और अपने को आध्यात्मिक प्रकृति तक ऊपर उठाना चाहता है तथा भगवान् के पास वापस जाना चाहता है, वह यदि भौतिक सम्पत्ति तथा स्त्री की ओर इन्द्रियतृप्ति के लिए देखता है - भले ही वह उनका भोग न करे, केवल उनकी ओर इच्छा-दृष्टि से देखे, तो भी वह इतना गर्हित है कि उसके लिए श्रेयस्कर होगा कि वह ऐसी अवैध इच्छाएँ करने के पूर्व आत्महत्या कर ले ।” इस तरह शुद्धि की ये विधियाँ हैं ।
अगला गुण है, ज्ञानयोग व्यवस्थिति – ज्ञान के अनुशीलन में संलग्न रहना । संन्यासी का जीवन गृहस्थों तथा उन सबों को, जो आध्यात्मिक उन्नति के वास्तविक जीवन को भूल चुके हैं, ज्ञान वितरित करने के लिए होता है । संन्यासी से आशा की जाती है कि वह अपनी जीविका के लिए द्वार-द्वार भिक्षाटन करे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वह भिक्षुक है । विनयशीलता भी आध्यात्मिकता में स्थित मनुष्य की एक योग्यता है । संन्यासी मात्र विनयशीलता वश द्वार-द्वार जाता है, भिक्षाटन के उद्देश्य से नहीं जाता, अपितु गृहस्थों को दर्शन देने तथा उनमें कृष्णभावनामृत जगाने के लिए जाता है । यह संन्यासी का कर्तव्य है । यदि वह वास्तव में उन्नत है और उसे गुरु का आदेश प्राप्त है, तो उसे तर्क तथा ज्ञान द्वारा कृष्णभावनामृत का उपदेश करना चाहिए और यदि वह इतना उन्नात नहीं है, तो उसे संन्यास आश्रम ग्रहण नहीं करना चाहिए । लेकिन यदि किसी ने पर्याप्त ज्ञान के बिना ही संन्यास आश्रम स्वीकार कर लिया है, तो उसे ज्ञान अनुशीलन के लिए प्रामाणिक गुरु से श्रवण में रत होना चाहिए । संन्यासी को निर्भीक होना चाहिए, उसे सत्त्वसंशुद्धि तथा ज्ञानयोग में स्थित होना चाहिए ।
अगला गुण दान है । दान गृहस्थों के लिए है । गृहस्थों को चाहिए कि वे निष्कपटता से जीवनयापन करना सीखें और कमाई का पचास प्रतिशत विश्व भर में कृष्णभावनामृत के प्रचार में खर्च करें । इस प्रकार से गृहस्थ को चाहिए कि ऐसे कार्य में लगे संस्थान-समितियों को दान दे । दान योग्य पात्र को दिया जाना चाहिए । जैसा आगे वर्णन किया जाएगा, दान भी कई तरह का होता है - यथा सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में दिया गया दान । सतोगुण में दिये जाने वाले दान की संस्तुति शास्त्रों ने की है, लेकिन रजो तथा तमोगुण में दिये गये दान की संस्तुति नहीं है, क्योंकि यह धन का अपव्यय मात्र है । संसार भर में कृष्णभावनामृत के प्रसार हेतु ही दान दिया जाना चाहिए । ऐसा दान सतोगुणी होता है ।
जहाँ तक दम (आत्मसंयम) का प्रश्न है, यह धार्मिक समाज के अन्य आश्रमों के ही लिए नहीं है, अपितु गृहस्थ के लिए विशेष रूप से है । यद्यपि उसके पत्नी होती है, लेकिन उसे चाहिए कि व्यर्थ ही अपनी इन्द्रियों को विषयभोग की ओर न मोड़े । गृहस्थों पर भी मैथुन-जीवन के लिए प्रतिबन्ध है और इसका उपयोग केवल सन्तानोत्पत्ति के लिए किया जाना चाहिए । यदि वह सन्तान नहीं चाहता, तो उसे अपनी पत्नी के साथ विषय-भोग में लिप्त नहीं होना चाहिए । आधुनिक समाज मैथुन-जीवन का भोग करने के लिए निरोध-विधियों का या अन्य घृणित विधियों का उपयोग करता है, जिससे सन्तान का उत्तरदायित्व न उठाना पड़े । यह दिव्य गुण नहीं, अपितु आसुरी गुण है । यदि कोई व्यक्ति, चाहे वह गृहस्थ ही क्यों न हो, आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करना चाहता है, तो उसे अपने मैथुन-जीवन पर संयम रखना होगा और उसे ऐसी सन्तान नहीं उत्पन्न करनी चाहिए, जो कृष्ण की सेवा में काम न आए । यदि वह ऐसी सन्तान उत्पन्न करता है, जो कृष्णभावनाभावित हो सके, तो वह सैकड़ों सन्तानें उत्पन्न कर सकता है । लेकिन ऐसी क्षमता के बिना किसी को इन्द्रियसुख के लिए काम-भोग में लिप्त नहीं होना चाहिए ।
गृहस्थों को यज्ञ भी करना चाहिए, क्योंकि यज्ञ के लिए पर्याप्त धन चाहिए । ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम वालों के पास धन नहीं होता । वे तो भिक्षाटन करके जीवित रहते हैं । अतएव विभिन्न प्रकार के यज्ञ गृहस्थों के दायित्व हैं । उन्हें चाहिए कि वैदिक साहित्य द्वारा आदिष्ट अग्निहोत्र यज्ञ करें, लेकिन आज-कल ऐसे यज्ञ अत्यन्त खर्चीले हैं और हर किसी गृहस्थ के लिए इन्हें सम्पन्न कर पाना कठिन है । इस युग के लिए संस्तुत सर्वश्रेष्ठ यज्ञ है - संकीर्तनयज्ञ । यह संकीर्तनयज्ञ - हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे ॥ - का जप सर्वोत्तम और सबसे कम खर्च वाला यज्ञ है और प्रत्येक व्यक्ति इसे करके लाभ उठा सकता है । अतएव दान, इन्द्रियसंयम तथा यज्ञ करना - ये तीन बातें गृहस्थ के लिए हैं ।
स्वाध्याय या वेदाध्ययन ब्रह्मचर्य आश्रम या विद्यार्थी जीवन के लिए है । ब्रह्मचारियों का स्त्रियों से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होना चाहिए । उन्हें ब्रह्मचर्यजीवन बिताना चाहिए और आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन हेतु, अपना मन वेदों के अध्ययन में लगाना चाहिए । यही स्वाध्याय है ।
तपस् या तपस्या वानप्रस्थों के लिए है । मनुष्य को जीवन भर गृहस्थ ही नहीं बने रहना चाहिए । उसे स्मरण रखना होगा कि जीवन के चार विभाग हैं - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास । अतएव गृहस्थ रहने के बाद उसे विरक्त हो जाना चाहिए । यदि कोई एक सौ वर्ष जीवित रहता है, तो उसे २५ वर्ष तक ब्रह्मचर्य, २५ वर्ष तक गृहस्थ, २५ वर्ष तक वानप्रस्थ तथा २५ वर्ष तक संन्यास का जीवन बिताना चाहिए । ये वैदिक धार्मिक अनुशासन के नियम हैं । गृहस्थ जीवन से विरक्त होने पर मनुष्य को शरीर, मन तथा वाणी का संयम बरतना चाहिए । यही तपस्या है । समग्र वर्णाश्रमधर्म समाज ही तपस्या के निमित्त है । तपस्या के बिना किसी को मुक्ति नहीं मिल सकती । इस सिद्धान्त की संस्तुति न तो वैदिक साहित्य में की गई है, न भगवद्गीता में कि जीवन में तपस्या की आवश्यकता नहीं है और कोई कल्पनात्मक चिन्तन करता रहे तो सब कुछ ठीक हो जायगा । ऐसे सिद्धान्त तो उन दिखावटी अध्यात्मवादियों द्वारा बनाये जाते हैं, जो अधिक से अधिक अनुयायी बनाना चाहते हैं । यदि प्रतिबन्ध हों, विधि-विधान हों तो लोग इस प्रकार आकर्षित न हों । अतएव जो लोग धर्म के नाम पर अनुयायी चाहते हैं, वे केवल दिखावा करते हैं, वे अपने विद्यार्थियों के जीवनों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाते और न ही अपने जीवन पर । लेकिन वेदों में ऐसी विधि को स्वीकृति प्रदान नहीं की गई ।
जहाँ तक ब्राह्मणों की सरलता (आर्जवम्) का सम्बन्ध है, इसका पालन न केवल किसी एक आश्रम में किया जाना चाहिए, अपितु चारों आश्रमों के प्रत्येक सदस्य को करना चाहिए चाहे वह ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यास आश्रम में हो । मनुष्य को अत्यन्त सरल तथा सीधा होना चाहिए ।
अहिंसा का अर्थ है किसी जीव के प्रगतिशील जीवन को न रोकना । किसी को यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि शरीर के वध किये जाने के बाद भी आत्मा-स्फुलिंग नहीं मरता, इसलिए इन्द्रियतृप्ति के लिए पशुवध करने में कोई हानि नहीं है । प्रचुर अन्न, फल तथा दुग्ध की पूर्ति होते हुए भी आजकल लोगों में पशुओं का मांस खाने की लत पड़ी हुई है । लेकिन पशुओं के वध की कोई आवश्यकता नहीं है । यह आदेश हर एक के लिए है । जब कोई विकल्प न रहे, तभी पशुवध किया जाय । लेकिन इसकी यज्ञ में बलि की जाय । जो भी हो, जब मानवता के लिए प्रचुर भोजन हो, तो जो लोग आध्यात्मिक साक्षात्कार में प्रगति करने के इच्छुक हैं, उन्हें पशुहिंसा नहीं करनी चाहिए । वास्तविक अहिंसा का अर्थ है कि किसी के प्रगतिशील जीवन को रोका न जाय । पशु भी अपने विकास काल में एक पशुयोनि से दूसरी पशुयोनि में देहान्तरण करके प्रगति करते हैं । यदि किसी विशेष पशु का वध कर दिया जाता है, तो उसकी प्रगति रुक जाती है । यदि कोई पशु किसी शरीर में बहुत दिनों से या वर्षों से रह रहा हो और उसे असमय ही मार दिया जाय तो उसे पुनः उसी जीवन में वापस आकर शेष दिन पूरे करने के बाद ही दूसरी योनि में जाना पड़ता है । अतएव अपने स्वाद की तुष्टि के लिए किसी की प्रगति को नहीं रोकना चाहिए । यही अहिंसा है ।
सत्यम् का अर्थ है कि मनुष्य को अपने स्वार्थ के लिए सत्य को तोड़ना-मरोड़ना नहीं चाहिए । वैदिक साहित्य में कुछ अंश अत्यन्त कठिन हैं, लेकिन उनका अर्थ किसी प्रामाणिक गुरु से जानना चाहिए । वेदों को समझने की यही विधि है । श्रुति का अर्थ है, किसी अधिकारी से सुनना । मनुष्य को चाहिए कि अपने स्वार्थ के लिए कोई विवेचना न गढ़े । भगवद्गीता की अनेक टीकाएँ हैं, जिसमें मूलपाठ की गलत व्याख्या की गई है । शब्द का वास्तविक भावार्थ प्रस्तुत किया जाना चाहिए और इसे प्रामाणिक गुरु से ही सीखना चाहिए ।
अक्रोध का अर्थ है, क्रोध को रोकना । यदि कोई क्षुब्ध बनावे तो भी सहिष्णु बने रहना चाहिए, क्योंकि एक बार क्रोध करने पर सारा शरीर दूषित हो जाता है । क्रोध रजोगुण तथा काम से उत्पन्न होता है । अतएव जो योगी है उसे क्रोध पर नियन्त्रण रखना चाहिए । अपैशुनम् का अर्थ है कि दूसरे के दोष न निकाले और व्यर्थ ही उन्हें सही न करे । निस्सन्देह चोर को चोर कहना छिद्रान्वेषण नहीं है, लेकिन निष्कपट व्यक्ति को चोर कहना उस व्यक्ति के लिए परम अपराध होगा जो आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करना चाहता है । ह्री का अर्थ है कि मनुष्य अत्यन्त लज्जाशील हो और कोई गर्हित कार्य न करे । अचापलम् या संकल्प का अर्थ है कि मनुष्य किसी प्रयास से विचलित या उदास न हो । किसी प्रयास में भले ही असफलता क्यों न मिले, किन्तु मनुष्य को उसके लिए खिन्न नहीं होना चाहिए । उसे धैर्य तथा संकल्प के साथ प्रगति करनी चाहिए ।
यहाँ पर प्रयुक्त तेजस् शब्द क्षत्रियों के निमित्त है । क्षत्रियों को अत्यन्त बलशाली होना चाहिए, जिससे वे निर्बलों की रक्षा कर सकें । उन्हें अहिंसक होने का दिखावा नहीं करना चाहिए । यदि हिंसा की आवश्यकता पड़े, तो हिंसा दिखानी चाहिए । लेकिन जो व्यक्ति अपने शत्रु का दमन कर सकता है, उसे चाहिए कि कुछ विशेष परिस्थितियों में क्षमा कर दे । वह छोटे अपराधों के लिए क्षमा-दान कर सकता है ।
शौचम् का अर्थ है पवित्रता, जो न केवल मन तथा शरीर की हो, अपितु व्यवहार में भी हो । यह विशेष रूप से वणिक वर्ग के लिए है । उन्हें चाहिए कि वे काला बाजारी न करें । नाति-मानिता अर्थात् सम्मान की आशा न करना शूद्रों अर्थात् श्रमिक वर्ग के लिए है, जिन्हें वैदिक आदेशों के अनुसार चारों वर्गों में सबसे निम्न माना जाता है । उन्हें वृथा सम्मान या प्रतिष्ठा से फूलना नहीं चाहिए, बल्कि अपनी मर्यादा में बने रहना चाहिए । शूद्रों का कर्तव्य है कि सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए वे उच्चवर्णों का सम्मान करें ।
यहाँ पर वर्णित छब्बीसों गुण दिव्य हैं । वर्णाश्रमधर्म के अनुसार इनका आचरण होना चाहिए । सारांश यह है कि भले ही भौतिक परिस्थितियाँ शोचनीय हों, यदि सभी वर्गों के लोग इन गुणों का अभ्यास करें, तो वे क्रमशः आध्यात्मिक अनुभूति के सर्वोच्च पद तक उठ सकते हैं ।