ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ ७ ॥

शब्दार्थ

मम - मेरा; एव - निश्चय ही; अंशः - सूक्ष्म कण; जीव-लोके - बद्ध जीवन के संसार में; जीव-भूतः - बद्ध जीव; सनातनः - शाश्वत; मनः - मन; षष्ठानि - छह; इन्द्रियाणि - इन्द्रियों समेत; प्रकृति - भौतिक प्रकृति में; स्थानि - स्थित; कर्षति - संघर्ष करता है ।

भावार्थ

इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिनमें मन भी सम्मिलित है ।

तात्पर्य

इस श्लोक में जीव का स्वरूप स्पष्ट है । जीव परमेश्वर का सनातन रूप से सूक्ष्म अंश है । ऐसा नहीं है कि बद्ध जीवन में वह एक व्यष्टित्व धारण करता है और मुक्त अवस्था में वह परमेश्वर से एकाकार हो जाता है । वह सनातन का अंश रूप है । यहाँ पर स्पष्टतः सनातन कहा गया है । वेदवचन के अनुसार परमेश्वर अपने आप को असंख्य रूपों में प्रकट करके विस्तार करते हैं, जिनमें से व्यक्तिगत विस्तार विष्णुतत्त्व कहलाते हैं और गौण विस्तार जीव कहलाते हैं । दूसरे शब्दों में, विष्णु तत्त्व निजी विस्तार (स्वांश) हैं और जीव विभिन्नांश (पृथकीकृत अंश) हैं । अपने स्वांश द्वारा वे भगवान् राम, नृसिंह देव, विष्णुमूर्ति तथा वैकुण्ठलोक के प्रधान देवों के रूप में प्रकट होते हैं । विभिन्नांश अर्थात् जीव, सनातन सेवक होते हैं । भगवान् के स्वांश सदैव विद्यमान रहते हैं । इसी प्रकार जीवों के विभिन्नांशों के अपने स्वरूप होते हैं । परमेश्वर के विभिन्नांश होने के कारण जीवों में भी उनके आंशिक गुण पाये जाते हैं, जिनमें से स्वतन्त्रता एक है । प्रत्येक जीव का आत्मा रूप में, अपना व्यष्टित्व और सूक्ष्म स्वातंत्र्य होता है । इसी स्वातंत्र्य के दुरुपयोग से जीव बद्ध बनता है और उसके सही उपयोग से वह मुक्त बनता है । दोनों ही अवस्थाओं में वह भगवान् के समान ही सनातन होता है । मुक्त अवस्था में वह इस भौतिक अवस्था से मुक्त रहता है और भगवान् की दिव्य सेवा में निरत रहता है । बद्ध जीवन में प्रकृति के गुणों द्वारा अभिभूत होकर वह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति को भूल जाता है । फलस्वरूप उसे अपनी स्थिति बनाये रखने के लिए इस संसार में अत्यधिक संघर्ष करना पड़ता है ।

न केवल मनुष्य तथा कुत्ते-बिल्ली जैसे जीव, अपितु इस भौतिक जगत् के बड़े-बड़े नियन्ता-यथा ब्रह्मा-शिव तथा विष्णु तक, परमेश्वर के अंश हैं । ये सभी सनातन अभिव्यक्तियाँ हैं, क्षणिक नहीं । कर्षति (संघर्ष करना) शब्द अत्यन्त सार्थक है । बद्धजीव मानो लौह शृंखलाओं से बँधा हो । वह मिथ्या अहंकार से बँधा रहता है और मन मुख्य कारण है जो उसे इस भवसागर की ओर धकेलता है । जब मन सतोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप अच्छे होते हैं । जब रजोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप कष्टकारक होते हैं और जब वह तमोगुण में होता है, तो वह जीवन की निम्नयोनियों में चला जाता है । लेकिन इस श्लोक से यह स्पष्ट है कि बद्धजीव मन तथा इन्द्रियों समेत भौतिक शरीर से आवरित है और जब वह मुक्त हो जाता है तो यह भौतिक आवरण नष्ट हो जाता है । लेकिन उसका आध्यात्मिक शरीर अपने व्यष्टि रूप में प्रकट होता है । माध्यान्दिनायन श्रुति में यह सूचना प्राप्त है - स वा एष ब्रह्मनिष्ठ इदं शरीरं मर्त्यमतिसृज्य ब्रह्माभिसम्पद्य ब्रह्मणा पश्यति ब्रह्मणा शृणोति ब्रह्मणैवेदं सर्वमनुभवति । यहाँ यह बताया गया है कि जब जीव अपने इस भौतिक शरीर को त्यागता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रवेश करता है, तो उसे पुनः आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है, जिससे वह भगवान् का साक्षात्कार कर सकता है । यह उनसे आमने-सामने बोल सकता है और सुन सकता है तथा जिस रूप में भगवान् हैं, उन्हें समझ सकता है । स्मृति से भी यह ज्ञात होता है - वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठ-मूर्तयः - वैकुण्ठ में सारे जीव भगवान् जैसे शरीरों में रहते हैं । जहाँ तक शारीरिक बनावट का प्रश्न है, अंश रूप जीवों तथा विष्णुमूर्ति के विस्तारों (अंशों) में कोई अन्तर नहीं होता । दूसरे शब्दों में, भगवान् की कृपा से मुक्त होने पर जीव को आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है ।

ममैवांशः शब्द भी अत्यन्त सार्थक है, जिसका अर्थ है भगवान् के अंश । भगवान् का अंश ऐसा नहीं होता, जैसे किसी पदार्थ का टूटा खंड (अंश) । हम द्वितीय अध्याय में देख चुके हैं कि आत्मा के खंड नहीं किये जा सकते । इस खंड की भौतिक दृष्टि से अनुभूति नहीं हो पाती । यह पदार्थ की भाँति नहीं है, जिसे चाहो तो कितने ही खण्ड कर दो और उन्हें पुनः जोड़ दो । ऐसी विचारधारा यहाँ पर लागू नहीं होती, क्योंकि संस्कृत के सनातन शब्द का प्रयोग हुआ है । विभिन्नांश सनातन है । द्वितीय अध्याय के प्रारम्भ में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में भगवान् का अंश विद्यमान है (देहिनोऽस्मिन्यथा देहे) । वह अंश जब शारीरिक बन्धन से मुक्त हो जाता है, तो आध्यात्मिक आकाश में वैकुण्ठलोक में अपना आदि आध्यात्मिक शरीर प्राप्त कर लेता है, जिससे वह भगवान् की संगति का लाभ उठाता है । किन्तु ऐसा समझा जाता है कि जीव भगवान् का अंश होने के कारण गुणात्मक दृष्टि से भगवान् के ही समान है, जिस प्रकार स्वर्ण के अंश भी स्वर्ण होते हैं ।