न रूपमस्येह तथोपलभ्यते
नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥ ३ ॥
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं
यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥

शब्दार्थ

- नहीं; रूपम् - रूप; अस्य - इस वृक्ष का; इह - इस संसार में; तथा - भी; उपलभ्यते - अनुभव किया जा सकता है; - कभी नहीं; - भी; आदिः - प्रारम्भ; - कभी नहीं; - भी; सम्प्रतिष्ठा - नींव; अश्वत्थम् - अश्वत्थ वृक्ष को; एनम् - इस; सु-विरूढ - अत्यन्त दृढ़ता से; मूलम् - जड़वाला; असङग-शस्त्रेण - विरक्ति के हथियार से; दृढेन - दृढ़; छित्वा - काट कर; ततः - तत्पश्चात्; पदम् - स्थिति को; तत् - उस; परिमार्गितव्यम् - खोजना चाहिए; यस्मिन - जहाँ; गताः - जाकर; - कभी नहीं; निवर्तन्ति - वापस आते हैं; भूयः - पुनः; तम् - उसको; एव - ही; - भी; आद्यम् - आदि; पुरुषम् - भगवान् की; प्रपद्ये - शरण में जाता हूँ; यतः - जिससे; प्रवृत्तिः - प्रारम्भ; प्रसृता - विस्तीर्ण; पुराणी - अत्यन्त पुरानी ।

भावार्थ

इस वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत् में नहीं किया जा सकता । कोई भी नहीं समझ सकता कि इसका आदि कहाँ है, अन्त कहाँ है या इसका आधार कहाँ है ? लेकिन मनुष्य को चाहिए कि इस दृढ़ मूल वाले वृक्ष को विरक्ति के शस्त्र से काट गिराए । तत्पश्चात् उसे ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहाँ जाकर लौटना न पड़े और जहाँ उस भगवान् की शरण ग्रहण कर ली जाये, जिससे अनादि काल से प्रत्येक वस्तु का सूत्रपात तथा विस्तार होता आया है ।

तात्पर्य

अब यह स्पष्ट कह दिया गया है कि इस अश्वत्थ वृक्ष के वास्तविक स्वरूप को इस भौतिक जगत में नहीं समझा जा सकता । चँकि इसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं, अतः वास्तविक वृक्ष का विस्तार विरुद्ध दिशा में होता है । जब वृक्ष के भौतिक विस्तार में कोई फँस जाता है, तो उसे न तो यह पता चल पाता है कि यह कितनी दूरी तक फैला है और न वह इस वृक्ष के शुभारम्भ को ही देख पाता है । फिर भी मनुष्य को कारण की खोज करनी ही होती है । “मैं अमुक पिता का पुत्र हूँ, जो अमुक का पुत्र है, आदि” - इस प्रकार अनुसन्धान करने से मनुष्य को ब्रह्मा प्राप्त होते हैं, जिन्हें गर्भोदकशायी विष्णु ने उत्पन्न किया । इस प्रकार अन्ततः भगवान् तक पहुँचा जा सकता है, जहाँ सारी गवेषणा का अन्त हो जाता है । मनुष्य को इस वृक्ष के उद्गम, परमेश्वर, की खोज ऐसे व्यक्तियों की संगति द्वारा करनी होती है, जिन्हें उस परमेश्वर का ज्ञान प्राप्त है । इस प्रकार ज्ञान से मनुष्य धीरे-धीरे वास्तविकता के इस छद्म प्रतिबिम्ब से विलग हो जाता है और सम्बन्ध विच्छेद होने पर वह वास्तव में मूलवृक्ष में स्थित हो जाता है ।

इस प्रसंग में असङ्ग शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि विषयभोग की आसक्ति तथा भौतिक प्रकृति पर प्रभुता अत्यन्त प्रबल होती है । अतएव प्रामाणिक शास्त्रों पर आधारित आत्म-ज्ञान की विवेचना द्वारा विरक्ति सीखनी चाहिए और ज्ञानी पुरुषों से श्रवण करना चाहिए । भक्तों की संगति में रहकर ऐसी विवेचना से भगवान् की प्राप्ति होती है । तब सर्वप्रथम जो करणीय है, वह है भगवान् की शरण ग्रहण करना । यहाँ पर उस स्थान (पद) का वर्णन किया गया है, जहाँ जाकर मनुष्य इस छद्म प्रतिबिम्बित वृक्ष में कभी वापस नहीं लौटता । भगवान् कृष्ण वह आदि मूल हैं, जहाँ से प्रत्येक वस्तु निकली है । उस भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करने के लिए केवल उनकी शरण ग्रहण करनी चाहिए, जो श्रवण, कीर्तन आदि द्वारा भक्ति करने के फलस्वरूप प्राप्त होती है । वे ही भौतिक जगत् के विस्तार के कारण हैं । इसकी व्याख्या पहले ही स्वयं भगवान् ने की है । अहं सर्वस्य प्रभवः - मैं प्रत्येक वस्तु का उद्गम हूँ । अतएव इस भौतिक जीवन रूपी प्रबल अश्वत्थ के वृक्ष के बन्धन से छूटने के लिए कृष्ण की शरण ग्रहण की जानी चाहिए । कृष्ण की शरण ग्रहण करते ही मनुष्य स्वतः इस भौतिक विस्तार से विलग हो जाता है ।