सत्त्वं सुखे सञ्जयति रजः कर्मणि भारत ।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ॥ ९ ॥
शब्दार्थ
सत्त्वम् - सतोगुण; सुखे - सुख में; सञ्जयति - बाँधता है; रजः - रजोगुण; कर्मणि - सकाम कर्म में; भारत - हे भरतपुत्र; ज्ञानम् - ज्ञान को; आवृत्य - ढक कर; तु - लेकिन; तमः - तमोगुण; प्रमादे - पागलपन में; सञ्जयति - बाँधता है; उत - ऐसा कहा जाता है ।
भावार्थ
हे भरतपुत्र! सतोगुण मनुष्य को सुख से बाँधता है, रजोगुण सकाम कर्म से बाँधता है और तमोगुण मनुष्य के ज्ञान को ढक कर उसे पागलपन से बाँधता है ।
तात्पर्य
सतोगुणी पुरुष अपने कर्म या बौद्धिक वृत्ति से उसी तरह सन्तुष्ट रहता है, जिस प्रकार दार्शनिक, वैज्ञानिक या शिक्षक अपनी अपनी विद्याओं में निरत रहकर सन्तुष्ट रहते हैं । रजोगुणी व्यक्ति सकाम कर्म में लग सकता है, वह यथासम्भव धन प्राप्त करके उसे उत्तम कार्यों में व्यय करता है । कभी-कभी वह अस्पताल खोलता है और धर्मार्थ संस्थाओं को दान देता है । ये लक्षण हैं, रजोगुणी व्यक्ति के, लेकिन तमोगुण तो ज्ञान को ढक लेता है । तमोगुण में रहकर मनुष्य जो भी करता है, वह न तो उसके लिए, न किसी अन्य के लिए हितकर होता है ।