रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्गिषु जायते ।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
रजसि - रजोगुण में; प्रलयम् - प्रलय को; गत्वा - प्राप्त करके; कर्म-सङ्गिषु - सकाम कर्मियों की संगति में; जायते - जन्म लेता है; तथा - उसी प्रकार; प्रलीनः - विलीन होकर; तमसि - अज्ञान में; मूढ-योनिषु - पशुयोनि में; जायते - जन्म लेता है ।
भावार्थ
जब कोई रजोगुण में मरता है, तो वह सकाम कर्मियों के बीच में जन्म ग्रहण करता है और जब कोई तमोगुण में मरता है, तो वह पशुयोनि में जन्म धारण करता है ।
तात्पर्य
कुछ लोगों का विचार है कि एक बार मनुष्य जीवन को प्राप्त करके आत्मा कभी नीचे नहीं गिरता । यह ठीक नहीं है । इस श्लोक के अनुसार, यदि कोई तमोगुणी बन जाता है, तो वह मृत्यु के बाद पशुयोनि को प्राप्त होता है । वहाँ से मनुष्य को विकास प्रक्रम द्वारा पुनः मनुष्य जीवन तक आना पड़ता है । अतएव जो लोग मनुष्य जीवन के विषय में सचमुच चिन्तित हैं, उन्हें सतोगुणी बनना चाहिए और अच्छी संगति में रहकर गुणों को लाँघ कर कृष्णभावनामृत में स्थित होना चाहिए । यही मनुष्य जीवन का लक्ष्य है । अन्यथा इसकी कोई गारंटी (निश्चितता) नहीं कि मनुष्य को फिर से मनुष्ययोनि प्राप्त हो ।