अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् ।
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ॥ ८ ॥
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहङ्कार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥ ९ ॥
असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु ।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥ १० ॥
मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी ।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि ॥ ११ ॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् ।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ १२ ॥
शब्दार्थ
अमानित्वम् - विनम्रता; अदाम्भित्वम् - दम्भविहीनता; अहिंसा - अहिंसा; क्षान्तिः - सहनशीलता, सहिष्णुता; आर्जवम् - सरलता; आचार्य-उपासनम् - प्रामाणिक गुरु के पास जाना; शौचम् - पवित्रता; स्थैर्यम् - दृढ़ता; आत्म-विनिग्रहः - आत्म-संयम; इन्द्रिय-अर्थेषु - इन्द्रियों के मामले में; वैराग्यम् - वैराग्य; अनहंकारः - मिथ्या अभिमान से रहित; एव - निश्चय ही; च - भी; जन्म - जन्म; मृत्यु - मृत्यु; जरा - बुढ़ापा; व्याधि - तथा रोग का; दुःख - दुख का; दोष - बुराई; अनुदर्शनम् - देखते हुए; आसक्तिः - बिना आसक्ति के; अनभिष्वङगः - बिना संगति के; पुत्र - पुत्र; दार - स्त्री; गृह-आदिषु - घर आदि में; नित्यम् - निरन्तर; च - भी; सम-चित्तत्वम् - समभाव; इष्ट - इच्छित; अनिष्ट - अवांछित, उपपत्तिषु - प्राप्त करके; मयि - मुझ में; च - भी; अनन्य-योगेन - अनन्य भक्ति से; भक्तिः - भक्ति; अव्यभिचारिणी - बिना व्यवधान के; विविक्त - एकांत; देश - स्थानों की; सेवित्वम् - आकांक्षा करते हुए; अरतिः - अनासक्त भाव से; जन-संसदि - सामान्य लोगों को; अध्यात्म - आत्मा सम्बन्धी; ज्ञान - ज्ञान में; नित्यत्वम् - शाश्वतता; तत्त्वज्ञान - सत्य के ज्ञान के; अर्थ - हेतु; दर्शनम् - दर्शनशास्त्र; एतत् - यह सारा; ज्ञानम् - ज्ञान; इति - इस प्रकार; प्रोक्तम् - घोषित; अज्ञानम् - अज्ञान; यत् - जो; अतः - इससे; अन्यथा - अन्य, इतर ।
भावार्थ
विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता, प्रामाणिक गुरु के पास जाना, पवित्रता, स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का परित्याग, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति, वैराग्य, सन्तान, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति, अच्छी तथा बुरी घटनाओं के प्रति समभाव, मेरे प्रति निरन्तर अनन्य भक्ति, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा, जन समूह से विलगाव, आत्म-साक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारना, तथा परम सत्य की दार्शनिक खोज - इन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूँ और इनके अतिरिक्त जो भी है, वह सब अज्ञान है ।
तात्पर्य
कभी-कभी अल्पज्ञ लोग ज्ञान की इस प्रक्रिया को कार्यक्षेत्र की अन्तःक्रिया (विकार) के रूप में मानने की भूल करते हैं । लेकिन वास्तव में यही असली ज्ञान की प्रक्रिया है । यदि कोई इस प्रक्रिया को स्वीकार कर लेता है, तो परम सत्य तक पहुँचने की सम्भावना हो जाती है । यह इसके पूर्व बताये गये चौबीस तत्त्वों का विकार नहीं है । यह वास्तव में इन तत्त्वों के पाश से बाहर निकलने का साधन है । देहधारी आत्मा चौबीस तत्त्वों से बने आवरण रूप शरीर में बन्द रहता है और यहाँ पर ज्ञान की जिस प्रक्रिया का वर्णन है वह इससे बाहर निकलने का साधन है । ज्ञान की प्रक्रिया के सम्पूर्ण वर्णन में से ग्यारहवें श्लोक की प्रथम पंक्ति सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है - मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी - “ज्ञान की प्रक्रिया का अवसान भगवान् की अनन्य भक्ति में होता है ।” अतएव यदि कोई भगवान् की दिव्य सेवा को नहीं प्राप्त कर पाता या प्राप्त करने में असमर्थ है, तो शेष उन्नीस बातें व्यर्थ हैं । लेकिन यदि कोई पूर्ण कृष्णभावना से भक्ति ग्रहण करता है, तो अन्य उन्नीस बातें उसके अन्दर स्वयमेव विकसित हो आती हैं । जैसा कि श्रीमद्भागवत में (५.१८.१२) कहा गया है - यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः । जिसने भक्ति की अवस्था प्राप्त कर ली है, उसमें ज्ञान के सारे गुण विकसित हो जाते हैं । जैसा कि आठवें श्लोक में उल्लेख हुआ है, गुरु-ग्रहण करने का सिद्धान्त अनिवार्य है । यहाँ तक कि जो भक्ति स्वीकार करते हैं, उनके लिए भी यह आवश्यक है । आध्यात्मिक जीवन का शुभारम्भ तभी होता है, जब प्रामाणिक गुरु ग्रहण किया जाय । भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ पर स्पष्ट कहते हैं कि ज्ञान की यह प्रक्रिया ही वास्तविक मार्ग है । इससे परे जो भी विचार किया जाता है, व्यर्थ होता है ।
यहाँ पर ज्ञान की जो रूपरेखा प्रस्तुत की गई है उसका निम्नलिखित प्रकार से विश्लेषण किया जा सकता है । विनम्रता (अमानित्व) का अर्थ है कि मनुष्य को, अन्यों द्वारा सम्मान पाने के लिए इच्छुक नहीं रहना चाहिए । हम देहात्मबुद्धि के कारण अन्यों से सम्मान पाने के भूखे रहते हैं, लेकिन पूर्णज्ञान से युक्त व्यक्ति की दृष्टि में, जो यह जानता है कि वह शरीर नहीं है, इस शरीर से सम्बद्ध कोई भी वस्तु, सम्मान या अपमान व्यर्थ होता है । इस भौतिक छल के पीछे-पीछे दौड़ने से कोई लाभ नहीं है । लोग अपने धर्म में प्रसिद्धि चाहते हैं, अतएव यह देखा गया है कि कोई व्यक्ति धर्म के सिद्धान्तों को जाने बिना ही ऐसे समुदाय में सम्मिलित हो जाता है, जो वास्तव में धार्मिक सिद्धान्तों का पालन नहीं करता और इस तरह वह धार्मिक गुरु के रूप में अपना प्रचार करना चाहता है । जहाँ तक आध्यात्मिक ज्ञान में वास्तविक प्रगति की बात है, मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी परीक्षा करे कि वह कहाँ तक उन्नति कर रहा है । वह इन बातों के द्वारा अपनी परीक्षा कर सकता है ।
अहिंसा का सामान्य अर्थ वध न करना या शरीर को नष्ट न करना लिया जाता है, लेकिन अहिंसा का वास्तविक अर्थ है, अन्यों को विपत्ति में न डालना । देहात्मबुद्धि के कारण सामान्य लोग अज्ञान द्वारा ग्रस्त रहते हैं और निरन्तर भौतिक कष्ट भोगते रहते हैं । अतएव जब तक कोई लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान की ओर ऊपर नहीं उठाता, तब तक वह हिंसा करता रहता होता है । व्यक्ति को लोगों में वास्तविक ज्ञान वितरित करने का भरसक प्रयास करना चाहिए जिससे वे प्रबुद्ध हों और इस भवबन्धन से छूट सकें । यही अहिंसा है ।
सहिष्णुता (क्षान्तिः) का अर्थ है कि मनुष्य अन्यों द्वारा किये गये अपमान तथा तिरस्कार को सहे । जो आध्यात्मिक ज्ञान की उन्नति करने में लगा रहता है, उसे अन्यों के तिरस्कार तथा अपमान सहने पड़ते हैं । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह भौतिक स्वभाव है । यहाँ तक कि बालक प्रह्लाद को भी जो पाँच वर्ष के थे और जो आध्यात्मिक ज्ञान के अनुशीलन में लगे थे संकट का सामना करना पड़ा था, जब उनका पिता उनकी भक्ति का विरोधी बन गया । उनके पिता ने उन्हें मारने के अनेक प्रयत्न किए, किन्तु प्रह्लाद ने सहन कर लिया । अतएव आध्यात्मिक ज्ञान की उन्नति करते हुए अनेक अवरोध आ सकते हैं, लेकिन हमें सहिष्णु बन कर संकल्पपूर्वक प्रगति करते रहना चाहिए ।
सरलता (आर्जवम्) का अर्थ है कि बिना किसी कूटनीति के मनुष्य इतना सरल हो कि अपने शत्रु तक से वास्तविक सत्य का उद्घाटन कर सके । जहाँ तक गुरु बनाने का प्रश्न है, (आचार्योपासनम्), आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करने के लिए यह आवश्यक है, क्योंकि बिना प्रामाणिक गुरु के यह सम्भव नहीं है । मनुष्य को चाहिए कि विनम्रतापूर्वक गुरु के पास जाये और उसे अपनी समस्त सेवाएँ अर्पित करे, जिससे वह शिष्य को अपना आशीर्वाद दे सके । चूँकि प्रामाणिक गुरु कृष्ण का प्रतिनिधि होता है, अतएव यदि वह शिष्य को आशीर्वाद देता है, तो शिष्य तुरन्त ही प्रगति करने लगता है, भले ही वह विधि-विधानों का पालन न करता रहा हो । अथवा जो बिना किसी स्वार्थ के अपने गुरु की सेवा करता है, उसके लिए सारे यम-नियम सरल बन जाते हैं ।
आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए पवित्रता (शौचम्) अनिवार्य है । पवित्रता दो प्रकार की होती है - आन्तरिक तथा बाह्य । बाह्य पवित्रता का अर्थ है स्नान करना, लेकिन आन्तरिक पवित्रता के लिए निरन्तर कृष्ण का चिन्तन तथा हरे कृष्ण मंत्र का कीर्तन करना होता है । इस विधि से मन में से पूर्व कर्म की संचित धूलि हट जाती है ।
दृढ़ता (स्थैर्यम्) का अर्थ है कि आध्यात्मिक जीवन में उन्नति करने के लिए मनुष्य दृढ़संकल्प हो । ऐसे संकल्प के बिना मनुष्य ठोस प्रगति नहीं कर सकता । आत्मसंयम (आत्म-विनिग्रहः) का अर्थ है कि आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर जो भी बाधक हो, उसे स्वीकार न करना । मनुष्य को इसका अभ्यस्त बन कर ऐसी किसी भी वस्तु को त्याग देना चाहिए, जो आध्यात्मिक उन्नति के पथ के प्रतिकूल हो । यह असली वैराग्य है । इन्द्रियाँ इतनी प्रबल हैं कि वे सदैव इन्द्रियतृप्ति के लिए उत्सुक रहती हैं । अनावश्यक माँगों की पूर्ति नहीं करनी चाहिए । इन्द्रियों की उतनी ही तृप्ति की जानी चाहिए, जिससे आध्यात्मिक जीवन में आगे बढ़ने में अपने कर्तव्य की पूर्ति होती हो । सबसे महत्त्वपूर्ण, किन्तु वश में न आने वाली इन्द्रिय जीभ है । यदि जीभ पर संयम कर लिया गया तो समझो अन्य सारी इन्द्रियाँ वशीभूत हो गईं । जीभ का कार्य है, स्वाद ग्रहण करना तथा उच्चारण करना । अतएव नियमित रूप से जीभ को कृष्णार्पित भोग के उच्छिष्ट का स्वाद लेने में तथा हरे कृष्ण का कीर्तन करने में प्रयुक्त करना चाहिए । जहाँ तक नेत्रों का सम्बन्ध है, उन्हें कृष्ण के सुन्दर रूप के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं देखने देना चाहिए । इससे नेत्र वश में होंगे । इसी प्रकार कानों को कृष्ण के विषय में श्रवण करने में लगाना चाहिए, और नाक को कृष्णार्पित फूलों को सूंघने में लगाना चाहिए । यह भक्ति की विधि है, और यहाँ यह समझना होगा कि भगवद्गीता केवल भक्ति के विज्ञान का प्रतिपादन करती है । भक्ति ही प्रमुख एवं एकमात्र लक्ष्य है । भगवद्गीता के बुद्धिहीन भाष्यकार पाठक के ध्यान को अन्य विषयों की ओर मोड़ना चाहते हैं, लेकिन भगवद्गीता में भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई भी विषय नहीं है ।
मिथ्या अहंकार का अर्थ है, इस शरीर को आत्मा मानना । जब कोई यह जान जाता है कि वह शरीर नहीं, अपितु आत्मा है तो वह वास्तविक अहंकार को प्राप्त होता है । अहंकार तो रहता ही है । मिथ्या अहंकार की भर्त्सना की जाती है, वास्तविक अहंकार की नहीं । वैदिक साहित्य में (बृहदारण्यक उपनिषद् १.४.१०) कहा गया है - अहं ब्रह्मास्मि - मैं ब्रह्म हूँ, मैं आत्मा हूँ । “मैं हूँ” ही आत्म भाव है, और यह आत्म-साक्षात्कार की मुक्त अवस्था में भी पाया जाता है । “मैं हूँ” का भाव ही अहंकार है लेकिन जब “मैं हूँ” भाव को मिथ्या शरीर के लिए प्रयुक्त किया जाता है, तो वह मिथ्या अहंकार होता है । जब इस आत्म भाव (स्वरूप) को वास्तविकता के लिए प्रयुक्त किया जाता है, तो वह वास्तविक अहंकार होता है । ऐसे कुछ दार्शनिक हैं, जो यह कहते है कि हमें अपना अहंकार त्यागना चाहिए । लेकिन हम अपने अहंकार को त्यागें कैसे ? क्योंकि अहंकार का अर्थ है स्वरूप । लेकिन हमें मिथ्या देहात्मबुद्धि का त्याग करना ही होगा ।
जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि को स्वीकार करने के कष्ट को समझना चाहिए । वैदिक ग्रन्थों में जन्म के अनेक वृत्तान्त हैं । श्रीमद्भागवत में जन्म से पूर्व की स्थिति, माता के गर्भ में बालक के निवास, उसके कष्ट आदि का सजीव वर्णन हुआ है । यह भलीभाँति समझ लेना चाहिए कि जन्म बहुत कष्टपूर्ण है । चूँकि हम यह भूल जाते हैं कि माता के गर्भ में हमें कितना कष्ट मिला है, अतएव हम जन्म तथा मृत्यु की पुनरावृत्ति का कोई हल नहीं निकाल पाते । इसी प्रकार मृत्यु के समय भी सभी प्रकार के कष्ट मिलते हैं, जिनका उल्लेख प्रामाणिक शास्त्रों में हुआ है । इनकी विवेचना की जानी चाहिए । जहाँ तक रोग तथा वृद्धावस्था का प्रश्न है, सबों को इनका व्यावहारिक अनुभव है । कोई भी रोगग्रस्त नहीं होना चाहता, कोई भी बूढ़ा नहीं होना चाहता, लेकिन इनसे बचा नहीं जा सकता । जब तक हम जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्याधि के दुःखों को देखते हुए इस भौतिक जीवन के प्रति निराशावादी दृष्टिकोण नहीं बना पाते, तब तक आध्यात्मिक जीवन में प्रगति करने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं रह जाता ।
जहाँ तक संतान, पत्नी तथा घर से विरक्ति की बात है, इसका अर्थ यह नहीं कि इनके लिए कोई भावना ही न हो । ये सब स्नेह की प्राकृतिक वस्तुएँ हैं । लेकिन जब ये आध्यात्मिक उन्नति में अनुकूल न हों, तो इनके प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए । घर को सुखमय बनाने की सर्वोत्तम विधि कृष्णभावनामृत है । यदि कोई कृष्णभावनामृत से पूर्ण रहे, तो वह अपने घर को अत्यन्त सुखमय बना सकता है, क्योंकि कृष्णभावनामृत की विधि अत्यन्त सरल है । इसमें केवल हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे - का कीर्तन करना होता है, कृष्णार्पित भोग का उच्छिष्ट ग्रहण करना होता है, भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत जैसे ग्रन्थों पर विचार-विमर्श करना होता है, और अर्चाविग्रह की पूजा करनी होती है । इन चारों बातों से मनुष्य सुखी होगा । मनुष्य को चाहिए कि अपने परिवार के सदस्यों को ऐसी शिक्षा दे । परिवार के सदस्य प्रतिदिन प्रातः तथा सायंकाल बैठ कर साथ-साथ हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करें । यदि कोई इन चारों सिद्धान्तों का पालन करते हुए अपने पारिवारिक जीवन को कृष्णभावनामृत विकसित करने में ढाल सके, तो पारिवारिक जीवन को त्याग कर विरक्त जीवन बिताने की आवश्यकता नहीं होगी । लेकिन यदि यह आध्यात्मिक प्रगति के लिए अनुकूल न रहे, तो पारिवारिक जीवन का परित्याग कर देना चाहिए । मनुष्य को चाहिए कि कृष्ण के साक्षात्कार करने या उनकी सेवा करने के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दे, जिस प्रकार से अर्जुन ने किया था । अर्जुन अपने परिजनों को मारना नहीं चाह रहा था, किन्तु जब वह समझ गया कि ये परिजन कृष्णसाक्षात्कार में बाधक हो रहे हैं, तो उसने कृष्ण के आदेश को स्वीकार किया । वह उनसे लड़ा और उसने उनको मार डाला । इन सब विषयों में मनुष्य को पारिवारिक जीवन के सुख-दुःख से विरक्त रहना चाहिए, क्योंकि इस संसार में कोई कभी भी न तो पूर्ण सुखी रह सकता है, न दुःखी ।
सुख-दुःख भौतिक जीवन को दूषित करने वाले हैं । मनुष्य को चाहिए कि इन्हें सहना सीखे, जैसा कि भगवद्गीता में उपदेश दिया गया है । कोई कभी भी सुख-दुःख के आने-जाने पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकता, अतः मनुष्य को चाहिए कि भौतिकवादी जीवन-शैली से अपने को विलग कर ले और दोनों ही दशाओं में समभाव बनाये रहे । सामान्यतया जब हमें इच्छित वस्तु मिल जाती है, तो हम अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और जब अनिच्छित घटना घटती है, तो हम दुःखी होते हैं । लेकिन यदि हम वास्तविक आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त हों, तो ये बातें हमें विचलित नहीं कर पाएँगी । इस स्थिति तक पहुँचने के लिए हमें अटूट भक्ति का अभ्यास करना होता है । विपथ हुए बिना कृष्णभक्ति का अर्थ होता है भक्ति की नव विधियों - कीर्तन, श्रवण, पूजन आदि में प्रवृत्त होना, जैसा नवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में वर्णन हुआ है । इस विधि का अनुसरण करना चाहिए ।
यह स्वाभाविक है कि आध्यात्मिक जीवन-शैली का अभ्यस्त हो जाने पर मनुष्य भौतिकवादी लोगों से मिलना नहीं चाहेगा । इससे उसे हानि पहुँच सकती है । मनुष्य को चाहिए कि वह यह परीक्षा करके देख ले कि वह अवांछित संगति के बिना एकान्तवास करने में कहाँ तक सक्षम है । यह स्वाभाविक ही है कि भक्त में व्यर्थ के खेलकूद या सिनेमा जाने या किसी सामाजिक उत्सव में सम्मिलित होने की कोई रुचि नहीं होती, क्योंकि वह यह जानता है कि यह समय को व्यर्थ गँवाना है । कुछ शोध-छात्र तथा दार्शनिक ऐसे हैं जो कामवासनापूर्ण जीवन या अन्य विषय का अध्ययन करते हैं, लेकिन भगवद्गीता के अनुसार ऐसा शोध कार्य और दार्शनिक चिन्तन निरर्थक है । यह एक प्रकार से व्यर्थ होता है । भगवद्गीता के अनुसार मनुष्य को चाहिए कि अपने दार्शनिक विवेक से वह आत्मा की प्रकृति के विषय में शोध करे । उसे चाहिए कि वह अपने आत्मा को समझने के लिए शोध करे । यहाँ पर इसी की संस्तुति की गई है ।
जहाँ तक आत्म-साक्षात्कार का सम्बन्ध है, यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख है कि भक्तियोग ही व्यावहारिक है । ज्योंही भक्ति की बात उठे, तो मनुष्य को चाहिए कि परमात्मा तथा आत्मा के सम्बन्ध पर विचार करे । आत्मा तथा परमात्मा कभी एक नहीं हो सकते, विशेषतया भक्तियोग में तो कभी नहीं । परमात्मा के प्रति आत्मा की यह सेवा नित्य है, जैसा कि स्पष्ट किया गया है । अतएव भक्ति शाश्वत (नित्य) है । मनुष्य को इसी दार्शनिक धारणा में स्थित होना चाहिए ।
श्रीमद्भागवत में (१.२.११) व्याख्या की गई है - वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् – जो परम सत्य के वास्तविक ज्ञाता हैं, वे जानते हैं कि आत्मा का साक्षात्कार तीन रूपों में किया जाता है - ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् । परम सत्य के साक्षात्कार में भगवान् पराकाष्ठा होते हैं, अतएव मनुष्य को चाहिए कि भगवान् को समझने के पद तक पहुँचे और भगवान् की भक्ति में लग जाय । यही ज्ञान की पूर्णता है ।
विनम्रता से लेकर भगवत्साक्षात्कार तक की विधि भूमि से चल कर ऊपरी मंजिल तक पहुँचने के लिए सीढ़ी के समान है । इस सीढ़ी में कुछ ऐसे लोग हैं, जो अभी पहली सीढ़ी पर हैं, कुछ दूसरी पर, तो कुछ तीसरी पर । किन्तु जब तक मनुष्य ऊपरी मंजिल पर नहीं पहुँच जाता, जो कि कृष्ण का ज्ञान है, तब तक वह ज्ञान की निम्नतर अवस्था में ही रहता है । यदि कोई ईश्वर की बराबरी करते हुए आध्यात्मिक ज्ञान में प्रगति करना चाहता है, तो उसका प्रयास विफल होगा । यह स्पष्ट कहा गया है कि विनम्रता के बिना ज्ञान सम्भव नहीं है । अपने को ईश्वर समझना सर्वाधिक गर्व है । यद्यपि जीव सदैव प्रकृति के कठोर नियमों द्वारा ठुकराया जाता है, फिर भी वह अज्ञान के कारण सोचता है कि “मैं ईश्वर हूँ ।” ज्ञान का शुभारम्भ ‘अमानित्व’ या विनम्रता से होता है । मनुष्य को विनम्र होना चाहिए । परमेश्वर के प्रति विद्रोह के कारण ही मनुष्य प्रकृति के अधीन हो जाता है । मनुष्य को इस सच्चाई को जानना और इससे विश्वस्त होना चाहिए ।