ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक् ।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
ऋषिभिः - बुद्धिमान ऋषियों द्वारा; बहुधा - अनेक प्रकार से; गीतम् - वर्णित; छन्दोभिः - वैदिक मन्त्रों द्वारा; विविधैः - नाना प्रकार के; पृथक् - भिन्न-भिन्न; ब्रह्म-सूत्र - वेदान्त के; पदैः - नीतिवचनों द्वारा; च - भी; एव - निश्चित रूप से; हेतु-मद्भिः - कार्य-कारण से; विनिश्र्चितैः - निश्चित ।
भावार्थ
विभिन्न वैदिक ग्रंथों में विभिन्न ऋषियों ने कार्यकलापों के क्षेत्र तथा उन कार्यकलापों के ज्ञाता के ज्ञान का वर्णन किया है । इसे विशेष रूप से वेदान्त सूत्र में कार्य-कारण के समस्त तर्क समेत प्रस्तुत किया गया है ।
तात्पर्य
इस ज्ञान की व्याख्या करने में भगवान् कृष्ण सर्वोच्च प्रमाण हैं । फिर भी विद्वान तथा प्रामाणिक लोग सदैव पूर्ववर्ती आचार्यों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं । कृष्ण आत्मा तथा परमात्मा की द्वैतता तथा अद्वैतता सम्बन्धी इस अतीव विवादपूर्ण विषय की व्याख्या वेदान्त नामक शास्त्र का उल्लेख करते हुए कर रहे हैं, जिसे प्रमाण माना जाता है । सर्वप्रथम वे कहते हैं “यह विभिन्न ऋषियों के मतानुसार है ।” जहाँ तक ऋषियों का सम्बन्ध है, श्रीकृष्ण के अतिरिक्त व्यासदेव (जो वेदान्त सूत्र के रचयिता हैं) महान ऋषि हैं और वेदान्त सूत्र में द्वैत की भलीभाँति व्याख्या हुई है । व्यासदेव के पिता पराशर भी महर्षि हैं और उन्होंने धर्म सम्बन्धी अपने ग्रंथों में लिखा है - अहम् त्वं च तथान्ये - “तुम, मैं तथा अन्य सारे जीव अर्थात् हम सभी दिव्य हैं, भले ही हमारे शरीर भौतिक हों । हम अपने अपने कर्मों के कारण प्रकृति के तीनों गुणों के वशीभूत होकर पतित हो गये हैं । फलतः कुछ लोग उच्चतर धरातल पर हैं और कुछ निम्नतर धरातल पर हैं । ये उच्चतर तथा निम्नतर धरातल अज्ञान के कारण हैं, और अनन्त जीवों के रूप में प्रकट हो रहे हैं । किन्तु परमात्मा, जो अच्युत है, तीनों गुणों से अदूषित है, और दिव्य है ।” इसी प्रकार मूल वेदों में, विशेषतया कठोपनिषद् में आत्मा, परमात्मा तथा शरीर का अन्तर बताया गया है । इसके अतिरिक्त अनेक महर्षियों ने इसकी व्याख्या की है, जिनमें पराशर प्रमुख माने जाते हैं ।
छन्दोभिः शब्द विभिन्न वैदिक ग्रंथों का सूचक है । उदाहरणार्थ, तैत्तिरीय उपनिषद् जो यजुर्वेद की एक शाखा है, प्रकृति, जीव तथा भगवान् के विषय में वर्णन करती है । जैसा कि पहले कहा जा चुका है क्षेत्र का अर्थ कर्मक्षेत्र है । क्षेत्रज्ञ की दो कोटियाँ हैं - जीवात्मा तथा परम पुरुष । जैसा कि तैत्तिरीय उपनिषद् में (२.९) कहा गया है - ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा । भगवान् की शक्ति का प्राकट्य अन्नमय रूप में होता है, जिसका अर्थ है - अस्तित्व के लिए भोजन (अन्न) पर निर्भरता । यह ब्रह्म की भौतिकतावादी अनुभूति है । अन्न में परम सत्य की अनुभूति करने के पश्चात् फिर प्राणमय रूप में मनुष्य सजीव लक्षणों या जीवन रूपों में परम सत्य की अनुभूति करता है । ज्ञानमय रूप में यह अनुभूति सजीव लक्षणों से आगे बढ़कर चिन्तन, अनुभव तथा आकांक्षा तक पहुँचती है । तब ब्रह्म की उच्चतर अनुभूति होती है, जिसे विज्ञानमय रूप कहते हैं, जिसमें जीव के मन तथा जीवन के लक्षणों को जीव से भिन्न समझा जाता है । इसके पश्चात् परम अवस्था आती है, जो आनन्दमय है, अर्थात् सर्व-आनन्दमय प्रकृति की अनुभूति है । इस प्रकार से ब्रह्म अनुभूति की पाँच अवस्थाएँ हैं, जिन्हें ब्रह्म पुच्छं कहा जाता है । इनमें से प्रथम तीन - अन्नमय, प्राणमय तथा ज्ञानमय – अवस्थाएँ जीवों के कार्यकलापों के क्षेत्रों से सम्बन्धित होती हैं । परमेश्वर इन कार्यकलापों के क्षेत्रों से परे है, और आनन्दमय है । वेदान्त सूत्र भी परमेश्वर को आनन्दमयोऽभ्यासात् कहकर पुकारता है । भगवान् स्वभाव से आनन्दमय हैं । अपने दिव्य आनन्द को भोगने के लिए वे विज्ञानमय, प्राणमय, ज्ञानमय, तथा अन्नमय रूपों में विस्तार करते हैं । कार्यकलापों के क्षेत्र में जीव भोक्ता (क्षेत्रज्ञ) माना जाता है, किन्तु आनन्दमय उससे भिन्न होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि यदि जीव आनन्दमय का अनुगमन करने में सुख मानता है, तो वह पूर्ण बन जाता है । क्षेत्र के ज्ञाता (क्षेत्रज्ञ) रूप में परमेश्वर की और उसके अधीन ज्ञाता के रूप में जीव की तथा कार्यकलापों के क्षेत्र की प्रकृति का यह वास्तविक ज्ञान है । वेदान्तसूत्र या ब्रह्मसूत्र में इस सत्य की गवेषणा करनी होगी ।
यहाँ इसका उल्लेख हुआ है कि ब्रह्मसूत्र के नीतिवचन कार्य-कारण के अनुसार सुन्दर रूप में व्यवस्थित हैं । इनमें से कुछ सूत्र इस प्रकार हैं - न वियदश्रुतेः (२.३.२); नात्मा श्रुतेः (२.३.१८) तथा परात्तु तच्छ्रुतेः (२.३.४०) । प्रथम सूत्र कार्यकलापों के क्षेत्र को सूचित करता है, दूसरा जीव को और तीसरा परमेश्वर को, जो विभिन्न जीवों के आश्रयतत्त्व हैं ।