क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा ।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३५ ॥

शब्दार्थ

क्षेत्र - शरीर; क्षेत्र-ज्ञयोः - तथा शरीर के स्वामी के; एवम् - इस प्रकार; अन्तरम् - अन्तर को; ज्ञान-चक्षुषा - ज्ञान की दृष्टि से; भूत - जीव का; प्रकृति - प्रकृति से; मोक्षम् - मोक्ष को; - भी; ये - जो; विदुः - जानते हैं; यान्ति - प्राप्त होते हैं; ते - वे; परम् - परब्रह्म को ।

भावार्थ

जो लोग ज्ञान के चक्षुओं से शरीर तथा शरीर के ज्ञाता के अन्तर को देखते हैं और भव-बन्धन से मुक्ति की विधि को भी जानते हैं, उन्हें परमलक्ष्य प्राप्त होता है ।

तात्पर्य

इस तेरहवें अध्याय का तात्पर्य यही है कि मनुष्य को शरीर, शरीर के स्वामी तथा परमात्मा के अन्तर को समझना चाहिए । उसे श्लोक ८ से लेकर श्लोक १२ तक में वर्णित मुक्ति की विधि को जानना चाहिए । तभी वह परमगति को प्राप्त हो सकता है ।

श्रद्धालु को चाहिए कि सर्वप्रथम वह ईश्वर का श्रवण करने के लिए सत्संगति करे, और धीरे-धीरे प्रबुद्ध बने । यदि गुरु स्वीकार कर लिया जाये, तो पदार्थ तथा आत्मा के अन्तर को समझा जा सकता है और वही अग्रिम आत्म-साक्षात्कार के लिए शुभारम्भ बन जाता है । गुरु अनेक प्रकार के उपदेशों से अपने शिष्यों को देहात्मबुद्धि से मुक्त होने की शिक्षा देता है । उदाहरणार्थ - भगवद्गीता में कृष्ण अर्जुन को भौतिक बातों से मुक्त होने के लिए शिक्षा देते हैं ।

मनुष्य यह तो समझ सकता है कि यह शरीर पदार्थ है और इसे चौबीस तत्त्वों में विश्लेषित किया जा सकता है । शरीर स्थूल अभिव्यक्ति है और मन तथा मनोवैज्ञानिक प्रभाव सूक्ष्म अभिव्यक्ति हैं । जीवन के लक्षण इन्हीं तत्त्वों की अन्तःक्रिया (विकार) हैं, किन्तु इनसे भी ऊपर आत्मा और परमात्मा हैं । आत्मा तथा परमात्मा दो हैं । यह भौतिक जगत् आत्मा तथा चौबीस तत्त्वों के संयोग से कार्यशील है । जो सम्पूर्ण भौतिक जगत् की इस रचना को आत्मा तथा तत्त्वों के संयोग से हुई मानता है और परमात्मा की स्थिति को भी देखता है, वही वैकुण्ठ-लोक जाने का अधिकारी बन पाता है । ये बातें चिन्तन तथा साक्षात्कार की हैं । मनुष्य को चाहिए कि गुरु की सहायता से इस अध्याय को भली-भाँति समझ ले ।

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय “प्रकृति, पुरुष तथा चेतना” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।