अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥ ३२ ॥

शब्दार्थ

अनादित्वात् - नित्यता के कारण; निर्गुणत्वात् - दिव्य होने से; परम - भौतिक प्रकृति से परे; आत्मा - आत्मा; अयम् - यह; अव्ययः - अविनाशी; शरीर-स्थः - शरीर में वास करने वाला; अपि - यद्यपि; कौन्तेय - हे कुन्तीपुत्र; न करोति - कुछ नहीं करता; न लिप्यते - न ही लिप्त होता है ।

भावार्थ

शाश्वत दृष्टिसम्पन्न लोग यह देख सकते हैं कि अविनाशी आत्मा दिव्य, शाश्वत तथा गुणों से अतीत है । हे अर्जुन! भौतिक शरीर के साथ सम्पर्क होते हुए भी आत्मा न तो कुछ करता है और न लिप्त होता है ।

तात्पर्य

ऐसा प्रतीत होता है कि जीव उत्पन्न होता है, क्योंकि भौतिक शरीर का जन्म होता है । लेकिन वास्तव में जीव शाश्वत है, वह उत्पन्न नहीं होता और शरीर में स्थित रह कर भी, वह दिव्य तथा शाश्वत रहता है । इस प्रकार वह विनष्ट नहीं किया जा सकता । वह स्वभाव से आनन्दमय है । वह किसी भौतिक कार्य में प्रवृत्त नहीं होता । अतएव भौतिक शरीरों के साथ उसका सम्पर्क होने से जो कार्य सम्पन्न होते हैं, वे उसे लिप्त नहीं कर पाते ।