क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ॥ ३ ॥
शब्दार्थ
क्षेत्र-ज्ञम् - क्षेत्र का ज्ञाता; च - भी; अपि - निश्चय ही; माम् - मुझको; विद्धि - जानो; सर्व - समस्त; क्षेत्रेषु - शरीर रूपी क्षेत्रों में; भारत - हे भरत के पुत्र; क्षेत्र - कर्म-क्षेत्र (शरीर); क्षेत्र-ज्ञयोः - तथा क्षेत्र के ज्ञाता का; ज्ञानम् - ज्ञान; यत् - जो; तत् - वह; ज्ञानम् - ज्ञान; मतम् - अभिमत; मम - मेरा ।
भावार्थ
हे भरतवंशी! तुम्हें ज्ञात होना चाहिए कि मैं भी समस्त शरीरों में ज्ञाता भी हूँ और इस शरीर तथा इसके ज्ञाता को जान लेना ज्ञान कहलाता है । ऐसा मेरा मत है ।
तात्पर्य
शरीर, शरीर के ज्ञाता, आत्मा तथा परमात्मा विषयक व्याख्या के दौरान हमें तीन विभिन्न विषय मिलेंगे - भगवान्, जीव तथा पदार्थ । प्रत्येक कर्म-क्षेत्र में, प्रत्येक शरीर में दो आत्माएँ होती हैं - आत्मा तथा परमात्मा । चूँकि परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण का स्वांश है, अतः कृष्ण कहते हैं - “मैं भी ज्ञाता हूँ, लेकिन मैं शरीर का व्यष्टि ज्ञाता नहीं हूँ । मैं परम ज्ञाता हूँ । मैं शरीर में परमात्मा के रूप में विद्यमान रहता हूँ ।”
जो क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ का अध्ययन भगवद्गीता के माध्यम से सूक्ष्मता से करता है, उसे यह ज्ञान प्राप्त हो सकता है ।
भगवान् कहते हैं, “मैं प्रत्येक शरीर के कर्मक्षेत्र का ज्ञाता हूँ ।” व्यक्ति भले ही अपने शरीर का ज्ञाता हो, किन्तु उसे अन्य शरीरों का ज्ञान नहीं होता । समस्त शरीरों में परमात्मा रूप में विद्यमान भगवान् समस्त शरीरों के विषय में जानते हैं । वे जीवन की विविध योनियों के सभी शरीरों को जानने वाले हैं । एक नागरिक अपने भूमि-खण्ड के विषय में सब कुछ जानता है, लेकिन राजा को न केवल अपने महल का, अपितु प्रत्येक नागरिक की भू-सम्पत्ति का, ज्ञान रहता है । इसी प्रकार कोई भले ही अपने शरीर का स्वामी हो, लेकिन परमेश्वर समस्त शरीरों के अधिपति हैं । राजा अपने साम्राज्य का मूल अधिपति होता है और नागरिक गौण अधिपति । इसी प्रकार परमेश्वर समस्त शरीरों के परम अधिपति हैं ।
यह शरीर इन्द्रियों से युक्त है । परमेश्वर हृषीकेश हैं जिसका अर्थ है “इन्द्रियों के नियामक” । वे इन्द्रियों के आदि नियामक हैं, जिस प्रकार राजा अपने राज्य की समस्त गतिविधियों का आदि नियामक होता है, नागरिक तो गौण नियामक होते हैं । भगवान् का कथन है, “मैं ज्ञाता भी हूँ ।” इसका अर्थ है कि वे परम ज्ञाता हैं, जीवात्मा केवल अपने विशिष्ट शरीर को ही जानता है । वैदिक ग्रन्थों में इस प्रकार का वर्णन हुआ है –
क्षेत्राणि हि शरीराणि बीजं चापि शुभाशुभे ।
तानि वेत्ति स योगात्मा ततः क्षेत्रज्ञ उच्यते ॥
यह शरीर क्षेत्र कहलाता है, और इस शरीर के भीतर इसके स्वामी तथा साथ ही परमेश्वर का वास है, जो शरीर तथा शरीर के स्वामी दोनों को जानने वाला है । इसलिए उन्हें समस्त क्षेत्रों का ज्ञाता कहा जाता है । कर्म क्षेत्र, कर्म के ज्ञाता तथा समस्त कर्मों के परम ज्ञाता का अन्तर आगे बतलाया जा रहा है । वैदिक ग्रन्थों में शरीर, आत्मा तथा परमात्मा के स्वरूप की सम्यक जानकारी ज्ञान नाम से अभिहित की जाती है । ऐसा कृष्ण का मत है । आत्मा तथा परमात्मा को एक मानते हुए भी पृथक्-पृथक् समझना ज्ञान है । जो कर्मक्षेत्र तथा कर्म के ज्ञाता को नहीं समझता, उसे पूर्ण ज्ञान नहीं होता । मनुष्य को प्रकृति, पुरुष (प्रकृति का भोक्ता) तथा ईश्वर (वह ज्ञाता जो प्रकृति एवं व्यष्टि आत्मा का नियामक है) की स्थिति समझनी होती है । उसे इन तीनों के विभिन्न रूपों में किसी प्रकार का भ्रम पैदा नहीं करना चाहिए । मनुष्य को चित्रकार, चित्र तथा तूलिका में भ्रम नहीं करना चाहिए । यह भौतिक जगत्, जो कर्मक्षेत्र के रूप में है, प्रकृति है और इस प्रकृति का भोक्ता जीव है, और इन दोनों के ऊपर परम नियामक भगवान् हैं । वैदिक भाषा में इसे इस प्रकार कहा गया है (श्वेताश्वतर उपनिषद १.१२)- भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा । सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत् । ब्रह्म के तीन स्वरूप हैं - प्रकृति कर्मक्षेत्र के रूप में ब्रह्म है, तथा जीव भी ब्रह्म है जो भौतिक प्रकृति को अपने नियन्त्रण में रखने का प्रयत्न करता है, और इन दोनों का नियामक भी ब्रह्म है । लेकिन वास्तविक नियामक वही है ।
इस अध्याय में बताया जाएगा कि इन दोनों ज्ञाताओं में से एक अच्युत है, तो दूसरा च्युत । एक श्रेष्ठ है, तो दूसरा अधीन है । जो व्यक्ति क्षेत्र के इन दोनों ज्ञाताओं को एक मान लेता है, वह भगवान् के शब्दों का खण्डन करता है, क्योंकि उनका कथन है “मैं भी कर्मक्षेत्र का ज्ञाता हूँ” । जो व्यक्ति रस्सी को सर्प जान लेता है वह ज्ञाता नहीं है । शरीर कई प्रकार के हैं और इनके स्वामी भी भिन्न-भिन्न हैं । चूँकि प्रत्येक जीव की अपनी निजी सत्ता है, जिससे वह प्रकृति पर प्रभुता की सामर्थ्य रखता है, अतएव शरीर विभिन्न होते हैं । लेकिन भगवान् उन सबमें परम नियन्ता के रूप में विद्यमान रहते हैं । यहाँ पर च शब्द महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह समस्त शरीरों का द्योतक है । यह श्रील बलदेव विद्याभूषण का मत है । आत्मा के अतिरिक्त प्रत्येक शरीर में कृष्ण परमात्मा के रूप में रहते हैं, और यहाँ पर कृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि परमात्मा कर्मक्षेत्र तथा विशिष्ट भोक्ता दोनों का नियामक है ।