सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
सर्व - समस्त; इन्द्रिय - इन्द्रियों का; गुण - गुणों का; आभासम् - मूल स्त्रोत; सर्व - समस्त; इन्द्रिय - इन्द्रियों से; विवर्जितम् - विहीन; असक्तम् - अनासक्त; सर्वभृत् - प्रत्येक का पालनकर्ता; च - भी; एव - निश्चय ही; निर्गुणम् - गुणविहीन; गुण-भोक्तृ - गुणों का स्वामी; च - भी ।
भावार्थ
परमात्मा समस्त इन्द्रियों के मूल स्रोत हैं, फिर भी वे इन्द्रियों से रहित हैं । वे समस्त जीवों के पालनकर्ता होकर भी अनासक्त हैं । वे प्रकृति के गुणों से परे हैं, फिर भी वे भौतिक प्रकृति के समस्त गुणों के स्वामी हैं ।
तात्पर्य
यद्यपि परमेश्वर समस्त जीवों की समस्त इन्द्रियों के स्रोत हैं, फिर भी जीवों की तरह उनके भौतिक इन्द्रियाँ नहीं होतीं । वास्तव में जीवों में आध्यात्मिक इन्द्रियाँ होती हैं, लेकिन बद्ध जीवन में वे भौतिक तत्त्वों से आच्छादित रहती हैं, अतएव इन्द्रियकार्यों का प्राकट्य पदार्थ द्वारा होता है । परमेश्वर की इन्द्रियाँ इस तरह आच्छादित नहीं रहतीं । उनकी इन्द्रियाँ दिव्य होती हैं, अतएव निर्गुण कहलाती हैं । गुण का अर्थ है भौतिक गुण, लेकिन उनकी इन्द्रियाँ भौतिक आवरण से रहित होती हैं । यह समझ लेना चाहिए कि उनकी इन्द्रियाँ हमारी इन्द्रियों जैसी नहीं होतीं । यद्यपि वे हमारे समस्त ऐन्द्रिय कार्यों के स्रोत हैं, लेकिन उनकी इन्द्रियाँ दिव्य होती हैं, जो कल्मषरहित होती हैं । इसकी बड़ी ही सुन्दर व्याख्या श्वेताश्वतर उपनिषद् में (३.१९) अपाणिपादो जवनो ग्रहीता श्लोक में हुई है । भगवान् के हाथ भौतिक कल्मषों से ग्रस्त नहीं होते, अतएव उन्हें जो कुछ अर्पित किया जाता है, उसे वे अपने हाथों से ग्रहण करते हैं । बद्धजीव तथा परमात्मा में यही अन्तर है । उनके भौतिक नेत्र नहीं होते, फिर भी उनके नेत्र होते हैं, अन्यथा वे कैसे देख सकते ? वे सब कुछ देखते हैं - भूत,वर्तमान तथा भविष्य । वे जीवों के हृदय में वास करते हैं, और वे जानते हैं कि भूतकाल में हमने क्या किया, अब क्या कर रहे हैं और भविष्य में क्या होने वाला है । इसकी पुष्टि भगवद्गीता में हुई है । वे सब कुछ जानते हैं, किन्तु उन्हें कोई नहीं जानता । कहा जाता है कि परमेश्वर के हमारे जैसे पाँव नहीं हैं, लेकिन वे आकाश में विचरण कर सकते हैं, क्योंकि उनके आध्यात्मिक पाँव होते हैं । दूसरे शब्दों में, भगवान् निराकार नहीं हैं, उनके अपने नेत्र, पाँव, हाथ, सभी कुछ होते हैं, और चूँकि हम सभी परमेश्वर के अंश हैं, अतएव हमारे पास भी ये सारी वस्तुएँ होती हैं । लेकिन उनके हाथ, पाँव, नेत्र तथा अन्य इन्द्रियाँ प्रकृति द्वारा कल्मषग्रस्त नहीं होती ।
भगवदगीता से भी पुष्टि होती है कि जब भगवान् प्रकट होते हैं, तो वे अपनी अन्तरंगा शक्ति से यथारूप में प्रकट होते हैं । वे भौतिक शक्ति द्वारा कल्मषग्रस्त नहीं होते, क्योंकि वे भौतिक शक्ति के भी स्वामी हैं । वैदिक साहित्य से हमें पता चलता है कि उनका सारा शरीर आध्यात्मिक है । उनका अपना नित्यस्वरूप होता है, जो सच्चिदानन्द विग्रह है । वे समस्त ऐश्वर्य से पूर्ण हैं । वे सारी सम्पत्ति के स्वामी हैं और सारी शक्ति के स्वामी हैं । वे सर्वाधिक बुद्धिमान तथा ज्ञान से पूर्ण हैं । ये भगवान् के कुछ लक्षण हैं । वे समस्त जीवों के पालक हैं और सारी गतिविधि के साक्षी हैं । जहाँ तक वैदिक साहित्य से समझा जा सकता है, परमेश्वर सदैव दिव्य हैं । यद्यपि हमें उनके हाथ, पाँव, सिर, मुख नहीं दीखते, लेकिन वे होते हैं और जब हम दिव्य पद तक ऊपर उठ जाते हैं, तो हमें भगवान् के स्वरूप के दर्शन होते हैं । कल्मषग्रस्त इन्द्रियों के कारण हम उनके स्वरूप को देख नहीं पाते । अतएव निर्विशेषवादी भगवान् को नहीं समझ सकते, क्योंकि वे भौतिक दृष्टि से प्रभावित होते हैं ।