अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ १० ॥

शब्दार्थ

अभ्यासे - अभ्यास में; अपि - भी; असमर्थः - असमर्थ; असि - हो; मत्-कर्म - मेरे कर्म के प्रति; परमः - परायण; भव - बनो; मत्-अर्थम् - मेरे लिए; अपि - भी; कर्माणि - कर्म; कुर्वन् - करते हुए; सिद्धिम् - सिद्धि को; अवाप्स्यसि - प्राप्त करोगे ।

भावार्थ

यदि तुम भक्तियोग के विधि-विधानों का भी अभ्यास नहीं कर सकते, तो मेरे लिए कर्म करने का प्रयत्न करो, क्योंकि मेरे लिए कर्म करने से तुम पूर्ण अवस्था (सिद्धि) को प्राप्त होगे ।

तात्पर्य

यदि कोई गुरु के निर्देशानुसार भक्तियोग के विधि-विधानों का अभ्यास नहीं भी कर पाता, तो भी परमेश्वर के लिए कर्म करके उसे पूर्णावस्था प्रदान कराई जा सकती है । यह कर्म किस प्रकार किया जाय, इसकी व्याख्या ग्यारहवें अध्याय के पचपनवें श्लोक में पहले ही की जा चुकी है । मनुष्य में कृष्णभावनामृत के प्रचार हेतु सहानुभूति होनी चाहिए । ऐसे अनेक भक्त हैं जो कृष्णभावनामृत के प्रचार कार्य में लगे हैं । उन्हें सहायता की आवश्यकता है । अतः भले ही कोई भक्तियोग के विधि-विधानों का प्रत्यक्ष रूप से अभ्यास न कर सके, उसे ऐसे कार्य में सहायता देने का प्रयत्न करना चाहिए । प्रत्येक प्रकार के प्रयास में भूमि, पूँजी, संगठन तथा श्रम की आवश्यकता होती है । जिस प्रकार किसी भी व्यापार में रहने के लिए स्थान, उपयोग के लिए कुछ पूँजी, कुछ श्रम तथा विस्तार करने के लिए कुछ संगठन चाहिए, उसी प्रकार कृष्णसेवा के लिए भी इनकी आवश्यकता होती है । अन्तर केवल इतना ही होता है कि भौतिकवाद में मनुष्य इन्द्रियतृप्ति के लिए सारा कार्य करता है, लेकिन यही कार्य कृष्ण की तुष्टि के लिए किया जा सकता है । यही दिव्य कार्य है । यदि किसी के पास पर्याप्त धन है, तो वह कृष्णभावनामृत के प्रचार के लिए कोई कार्यालय अथवा मन्दिर निर्मित कराने में सहायता कर सकता है अथवा वह प्रकाशन में सहायता पहुँचा सकता है । कर्म के विविध क्षेत्र हैं और मनुष्य को ऐसे कर्मों में रुचि लेनी चाहिए । यदि कोई अपने कर्मों के फल को नहीं त्याग सकता, तो कम से कम उसका कुछ प्रतिशत कृष्णभावनामृत के प्रचार में तो लगा ही सकता है । इस प्रकार कृष्णभावनामृत की दिशा में स्वेच्छा से सेवा करने से व्यक्ति भगवत्प्रेम की उच्चतर अवस्था को प्राप्त हो सकेगा, जहाँ उसे पूर्णता प्राप्त हो सकेगी ।