श्रीभगवानुवाच
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥ ५ ॥
शब्दार्थ
श्रीभगवान् उवाच -भगवान् ने कहा; पश्य - देखो; मे - मेरा; पार्थ - पृथा पुत्र; रूपाणि- रूप; शतशः- सैकड़ों; अथ- भी; सहस्त्रशः- हजारों; नाना-विधानि- नाना रूप वाले; दिव्यानि - दिव्य; नाना - नाना प्रकार के; वर्ण - रंग; आकृतीनि - रूप; च - भी ।
भावार्थ
भगवान् ने कहा - हे अर्जुन, हे पार्थ! अब तुम मेरे ऐश्वर्य को, सैकड़ों-हजारों प्रकार के दैवी तथा विविध रंगों वाले रूपों को देखो ।
तात्पर्य
अर्जुन कृष्ण के विश्वरूप का दर्शनाभिलाषी था, जो दिव्य होकर भी दृश्य जगत् के लाभार्थ प्रकट होता है । फलतः वह प्रकृति के अस्थाई काल द्वारा प्रभावित है । जिस प्रकार प्रकृति (माया) प्रकट-अप्रकट है, उसी तरह कृष्ण का यह विश्वरूप भी प्रकट तथा अप्रकट होता रहता है । यह कृष्ण के अन्य रूपों की भाँति वैकुण्ठ में नित्य नहीं रहता । जहाँ तक भक्त की बात है, वह विश्वरूप देखने के लिए तनिक भी इच्छुक नहीं रहता, लेकिन चूँकि अर्जुन कृष्ण को इस रूप में देखना चाहता था, अतः वे यह रूप प्रकट करते हैं । सामान्य व्यक्ति इस रूप को नहीं देख सकता । श्रीकृष्ण द्वारा शक्ति प्रदान किये जाने पर ही इसके दर्शन हो सकते हैं ।