मा ते व्यथा मा च विमूढभावो
दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
व्यपेतभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वं
तदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥ ४९ ॥

शब्दार्थ

मा - न हो; ते - तुम्हें; व्यथा - पीड़ा, कष्ट; मा - न हो; - भी; विमूढ-भावः - मोह; दृष्ट्वा - देखकर; रूपम् - रूप को; घोरम् - भयानक; ईदृक् - इस; व्यपेत-भीः - सभी प्रकार के भय से मुक्त; प्रीत-मनाः - प्रसन्न चित्त; पुनः - फिर; त्वम् - तुम; तत् - उस; एव - इस प्रकार; मे - मेरे; रूपम् - रूप को; इदम् - इस; प्रपश्य - देखो ।

भावार्थ

तुम मेरे इस भयानक रूप को देखकर अत्यन्त विचलित एवं मोहित हो गये हो । अब इसे समाप्त करता हूँ । हे मेरे भक्त! तुम समस्त चिन्ताओं से पुनः मुक्त हो जाओ । तुम शान्त चित्त से अब अपना इच्छित रूप देख सकते हो ।

तात्पर्य

भगवद्गीता के प्रारम्भ में अर्जुन अपने पूज्य पितामह भीष्म तथा गुरु द्रोण के वध के विषय में चिन्तित था । किन्तु कृष्ण ने कहा कि उसे अपने पितामह का वध करने से डरना नहीं चाहिए । जब कौरवों की सभा में धृतराष्ट्र के पुत्र द्रौपदी को विवस्त्र करना चाह रहे थे, तो भीष्म तथा द्रोण मौन थे, अतः कर्तव्यविमुख होने के कारण इनका वध होना चाहिए । कृष्ण ने अर्जुन को अपने विश्वरूप का दर्शन यह दिखाने के लिए कराया कि ये लोग अपने कुकृत्यों के कारण पहले ही मारे जा चुके हैं । यह दृश्य अर्जुन को इसलिए दिखलाया गया, क्योंकि भक्त शान्त होते हैं और ऐसे जघन्य कर्म नहीं कर सकते । विश्वरूप प्रकट करने का अभिप्राय स्पष्ट हो चुका था । अब अर्जुन कृष्ण के चतुर्भुज रूप को देखना चाह रहा था । अतः उन्होंने यह रूप दिखाया । भक्त कभी भी विश्वरूप देखने में रुचि नहीं लेता क्योंकि इससे प्रेमानुभूति का आदान-प्रदान नहीं हो सकता । भक्त या तो अपना पूजाभाव अर्पित करना चाहता है या दो भुजा वाले कृष्ण का दर्शन करना चाहता है जिससे वह भगवान् के साथ प्रेमाभक्ति का आदान-प्रदान कर सके ।