अर्जुन उवाच
स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या
जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।
रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति
सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्घाः ॥ ३६ ॥
शब्दार्थ
अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; स्थाने – यह ठीक है; हृषीक-ईश – हेइन्द्रियों के स्वामी; तव – आपके; प्रकीर्त्या – कीर्ति से; जगत् – सारा संसार; प्रहृष्यति – हर्षित हो रहा है; अनुरज्यते – अनुरक्त हो रहा है; च – तथा; रक्षांसि – असुरगण; भीतानि – डर से; दिशः – सारी दिशाओं में; द्रवन्ति – भाग रहे हैं; सर्वे – सभी; नमस्यन्ति – नमस्कार करते हैं; च – भी; सिद्ध-सङ्घाः – सिद्धपुरुष ।
भावार्थ
अर्जुन ने कहा - हे हृषीकेश! आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होता है और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं । यद्यपि सिद्धपुरुष आपको नमस्कार करते हैं, किन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर-उधर भाग रहे हैं । यह ठीक ही हुआ है ।
तात्पर्य
कृष्ण से कुरुक्षेत्र युद्ध के परिणाम को सुनकर अर्जुन प्रबुद्ध हो गया और भगवान् के परम भक्त तथा मित्र के रूप में उनसे बोला कि कृष्ण जो कुछ करते हैं, वह सब उचित है । अर्जुन ने पुष्टि की कि कृष्ण ही पालक हैं और भक्तों के आराध्य तथा अवांछित तत्त्वों के संहारकर्ता हैं । उनके सारे कार्य सबों के लिए समान रूप से शुभ होते हैं । यहाँ पर अर्जुन यह समझ पाता है कि जब युद्ध निश्चित रूप से होना था तो अन्तरिक्ष से अनेक देवता, सिद्ध तथा उच्चतर लोकों के बुद्धिमान प्राणी युद्ध को देख रहे थे, क्योंकि युद्ध में कृष्ण उपस्थित थे । जब अर्जुन ने भगवान् का विश्वरूप देखा तो देवताओं को आनन्द हुआ, किन्तु अन्य लोग जो असुर तथा नास्तिक थे, भगवान् की प्रशंसा सुनकर सहन न कर सके । वे भगवान् के विनाशकारी रूप से डर कर भाग गये । भक्तों तथा नास्तिकों के प्रति भगवान् के व्यवहार की अर्जुन द्वारा प्रशंसा की गई है । भक्त प्रत्येक अवस्था में भगवान् का गुणगान करता है, क्योंकि वह जानता है कि वे जो कुछ भी करते हैं, वह सबों के हित में है ।