दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव कालानलसन्निभानि ।
दिशो न जाने न लभे च शर्म
प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥ २५ ॥
शब्दार्थ
दंष्ट्रा – दाँत; करालानि – विकराल; च – भी; ते - आपके; मुखानि – मुखों को; दृष्ट्वा – देखकर; एव – इस प्रकार; काल-अनल – प्रलय की; सन्नि-भानि – मानो; दिशः – दिशाएँ; न – नहीं; जाने – जानता हूँ; न – नहीं; लभे – प्राप्त करता हूँ; च – तथा; शर्म – आनन्द; प्रसीद – प्रसन्न हों; देव-ईश – हे देवताओं के स्वामी; जगत्-निवास – हे समस्त जगतों के आश्रय ।
भावार्थ
हे देवेश! हे जगनिवास! आप मुझ पर प्रसन्न हों । मैं इस प्रकार से आपके प्रलयाग्नि स्वरूप मुखों को तथा विकराल दाँतों को देखकर अपना सन्तुलन नहीं रख पा रहा । मैं सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ ।