मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ ९ ॥

शब्दार्थ

मत्-चित्ताः – जिनके मन मुझमें रमे हैं; मत्-गत-प्राणाः – जिनके जीवन मुझ में अर्पित हैं; बोधयन्तः – उपदेश देते हुए; परस्परम् – एक दूसरे से, आपस में; – भी; कथयन्तः – बातें करते हुए; – भी; माम् – मेरे विषय में; नित्यम् – निरन्तर; तुष्यन्ति – प्रसन्न होते हैं; – भी; रमन्ति – दिव्य आनन्द भोगते हैं; – भी ।

भावार्थ

मेरे शुद्धभक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं ।

तात्पर्य

यहाँ जिन शुद्ध भक्तों के लक्षणों का उल्लेख हुआ है, वे निरन्तर भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में रमे रहते हैं । उनके मन कृष्ण के चरणकमलों से हटते नहीं । वे दिव्य विषयों की ही चर्चा चलाते हैं । इस श्लोक में शुद्ध भक्तों के लक्षणों का विशेष रूप से उल्लेख हुआ है । भगवद्भक्त परमेश्वर के गुणों तथा उनकी लीलाओं के गान में अहर्निश लगे रहते हैं । उनके हृदय तथा आत्माएँ निरन्तर कृष्ण में निमग्न रहती हैं और वे अन्य भक्तों से भगवान् के विषय में बातें करने में आनन्दानुभव करते हैं ।

भक्ति की प्रारम्भिक अवस्था में वे सेवा में ही दिव्य आनन्द उठाते हैं और परिपक्वावस्था में वे ईश्वर-प्रेम को प्राप्त होते हैं । जब वे इस दिव्य स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं, तब वे उस सर्वोच्च सिद्धि का स्वाद लेते हैं, जो भगवद्धाम में प्राप्त होती है । भगवान् चैतन्य दिव्य भक्ति की तुलना जीव के हृदय में बीज बोने से करते हैं । ब्रह्माण्ड के विभिन्न लोकों में असंख्य जीव विचरण करते रहते हैं । इनमें से कुछ ही भाग्यशाली होते हैं, जिनकी शुद्धभक्त से भेंट हो पाती है और जिन्हें भक्ति समझने का अवसर प्राप्त हो पाता है । यह भक्ति बीज के सदृश है । यदि इसे जीव के हृदय में बो दिया जाये और जीव हरे कृष्ण मन्त्र का श्रवण तथा कीर्तन करता रहे तो बीज अंकुरित होता है, जिस प्रकार कि नियमतः सींचते रहने से वृक्ष का बीज फलता है । भक्ति रूपी आध्यात्मिक पौधा क्रमशः बढ़ता रहता है, जब तक यह ब्रह्माण्ड के आवरण को भेदकर ब्रह्मज्योति में प्रवेश नहीं कर जाता । ब्रह्मज्योति में भी यह पौधा तब तक बढ़ता जाता है, जब तक उस उच्चतम लोक को नहीं प्राप्त कर लेता, जिसे गोलोक वृन्दावन या कृष्ण का परमधाम कहते हैं । अन्ततोगत्वा यह पौधा भगवान् के चरणकमलों की शरण प्राप्त कर वहीं विश्राम पाता है । जिस प्रकार पौधे में क्रम से फूल तथा फल आते हैं, उसी प्रकार भक्तिरूपी पौधे में भी फल आते हैं और कीर्तन तथा श्रवण के रूप में उसका सिंचन चलता रहता है । चैतन्य चरितामृत में (मध्य लीला, अध्याय १९) भक्तिरूपी पौधे का विस्तार से वर्णन हुआ है । वहाँ यह बताया गया है कि जब पूर्ण पौधा भगवान् के चरणकमलों की शरण ग्रहण कर लेता है तो मनुष्य पूर्णतया भगवत्प्रेम में लीन हो जाता है, तब वह एक क्षण भी परमेश्वर के बिना नहीं रह पाता, जिस प्रकार कि मछली जल के बिना नहीं रह सकती । ऐसी अवस्था में भक्त वास्तव में परमेश्वर के संसर्ग से दिव्यगुण प्राप्त कर लेता है ।

श्रीमद्भागवत में भी भगवान् तथा उनके भक्तों के सम्बन्ध के विषय में ऐसी अनेक कथाएँ हैं । इसीलिए श्रीमद्भागवत भक्तों को अत्यन्त प्रिय है जैसा कि भागवत में ही (१२.१३.१८) कहा गया है - श्रीमद्भागवतं पुराणं अमलं यद्वैष्णवानां प्रियम् । ऐसी कथा में भौतिक कार्यों, आर्थिक विकास, इन्द्रियतृप्ति या मोक्ष के विषय में कुछ भी नहीं है । श्रीमद्भागवत ही एकमात्र ऐसी कथा है, जिसमें भगवान् तथा उनके भक्तों की दिव्य प्रकृति का पूर्ण वर्णन मिलता है । फलतः कृष्णभावनाभावित जीव ऐसे दिव्य साहित्य के श्रवण में दिव्य रुचि दिखाते हैं, जिस प्रकार तरुण तथा तरुणी को परस्पर मिलने में आनन्द प्राप्त होता है ।