महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
महा-ऋषयः – महर्षिगण; सप्त – सात; पूर्वे – पूर्वकाल में; चत्वारः – चार; मनवः – मनुगण; तथा – भी; मत्-भावाः – मुझसे उत्पन्न; मानसाः – मन से; जाताः – उत्पन्न; येषाम् – जिनकी; लोके – संसार में; इमाः – ये सब; प्रजाः – सन्तानें, जीव ।
भावार्थ
सप्तर्षिगण तथा उनसे भी पूर्व चार अन्य महर्षि एवं सारे मनु (मानवजाति के पूर्वज) सब मेरे मन से उत्पन्न हैं और विभिन्न लोकों में निवास करने वाले सारे जीव उनसे अवतरित होते हैं ।
तात्पर्य
भगवान् यहाँ पर ब्रह्माण्ड की प्रजा का आनुवंशिक वर्णन कर रहे हैं । ब्रह्मा परमेश्वर की शक्ति से उत्पन्न आदि जीव हैं, जिन्हें हिरण्यगर्भ कहा जाता है । ब्रह्मा से सात महर्षि तथा इनसे भी पूर्व चार महर्षि – सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत्कुमार - एवं सारे मनु प्रकट हुए । ये पच्चीस महान ऋषि ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों के धर्म-पथप्रदर्शक कहलाते हैं । असंख्य ब्रह्माण्ड हैं और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में असंख्य लोक हैं और प्रत्येक लोक में नाना योनियाँ निवास करती हैं । ये सब इन्हीं पच्चीसों प्रजापतियों से उत्पन्न हैं । कृष्ण की कृपा से एक हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या करने के बाद ब्रह्मा को सृष्टि करने का ज्ञान प्राप्त हुआ । तब ब्रह्मा से सनक, सनन्दन, सनातन तथा सनत्कुमार उत्पन्न हुए । उनके बाद रुद्र तथा सप्तर्षि और इस प्रकार फिर भगवान् की शक्ति से सभी ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों का जन्म हुआ । ब्रह्मा को पितामह कहा जाता है और कृष्ण को प्रपितामह - पितामह का पिता । इसका उल्लेख भगवदगीता के ग्यारहवें अध्याय (११.३९) में किया गया है ।