यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोऽंशसम्भवम् ॥ ४१ ॥
शब्दार्थ
यत् – यत् – जो जो; विभूति – ऐश्वर्य; मत् – युक्त; सत्त्वम् – अस्तित्व; श्री-मत् – सुन्दर; उर्जिवम् – तेजस्वी; एव – निश्चय ही; वा – अथवा; तत्-तत् – वे वे; एव – निश्चय ही; अवगच्छ – जानो; तवम् – तुम; मम – मेरे; तेजः – तेज का; अंश – भाग, अंश से; सम्भवम् – उत्पन्न ।
भावार्थ
तुम जान लो कि सारा ऐश्वर्य, सौन्दर्य तथा तेजस्वी सृष्टियाँ मेरे तेज के एक स्फुलिंग मात्र से उद्भूत हैं ।
तात्पर्य
किसी भी तेजस्वी या सुन्दर सृष्टि को, चाहे वह अध्यात्म जगत में हो या इस जगत में, कृष्ण की विभूति का अंश रूप ही मानना चाहिए । किसी भी अलौकिक तेजयुक्त वस्तु को कृष्ण की विभूति समझना चाहिए ।