द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम् ।
जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ॥ ३६ ॥
शब्दार्थ
द्यूतम् – जुआ; छलयताम् – समस्त छलियों या धूतों में; अस्मि – हूँ; तेजः – तेज, चमकदमक; तेजस्विनाम् – तेजस्वियों में; अहम् – मैं हूँ; जयः – विजय; अस्मि – हूँ; व्यवसायः – जोखिम या साहस; अस्मि – हूँ; सत्त्वम् – बल; सत्त्व-वताम् – बलवानों का; अहम् – मैं हूँ ।
भावार्थ
मैं छलियों में जुआ हूँ और तेजस्वियों में तेज हूँ । मैं विजय हूँ, साहस हूँ और बलवानों का बल हूँ ।
तात्पर्य
ब्रह्माण्ड में अनेक प्रकार के छलियाँ हैं । समस्त छल-कपट कर्मों में द्यूत-क्रीड़ा (जुआ) सर्वोपरि है और यह कृष्ण का प्रतीक है । परमेश्वर के रूप में कृष्ण किसी भी सामान्य पुरुष की अपेक्षा अधिक कपटी (छल करने वाले) हो सकते हैं । यदि कृष्ण किसी से छल करने की सोच लेते हैं तो कोई उनसे पार नहीं पा सकता । उनकी महानता एकांगी न होकर सर्वांगी है ।
वे विजयी पुरुषों की विजय हैं । वे तेजस्वियों के तेज हैं । साहसी तथा कर्मठों में वे सर्वाधिक साहसी तथा कर्मठ हैं । वे बलवानों में सर्वाधिक बलवान हैं । जब कृष्ण इस धराधाम में विद्यमान थे तो कोई भी उन्हें बल में हरा नहीं सकता था । यहाँ तक कि अपने बाल्यकाल में उन्होंने गोवर्धन पर्वत उठा लिया था । उन्हें न तो कोई छल में हरा सकता है, न तेज में, न विजय में, न साहस तथा बल में ।