कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन् ।
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥ १७ ॥
शब्दार्थ
कथम् – किस तरह, कैसे; विद्याम् अहम् – मैं जान सकूँ; योगिन् – हे परम योगी; त्वाम् – आपको; सदा – सदैव; परिचिन्तयन् – चिन्तन करता हुआ; केषु – किस; केषु – किस; च – भी; भावेषु – रूपों में; चिन्त्यः-असि – आपका स्मरण किया जाता है; भगवन् – हे भगवान्; मया – मेरे द्वारा ।
भावार्थ
हे कृष्ण, हे परम योगी! मैं किस तरह आपका निरन्तर चिन्तन करूँ और आपको कैसे जानूँ ? हे भगवान्! आपका स्मरण किन-किन रूपों में किया जाय ?
तात्पर्य
जैसा कि पिछले अध्याय में कहा जा चुका है, भगवान् अपनी योगमाया से आच्छादित रहते हैं । केवल शरणागत भक्तजन ही उन्हें देख सकते हैं । अब अर्जुन को विश्वास हो चुका है कि उसके मित्र कृष्ण भगवान् हैं, किन्तु वह उस सामान्य विधि को जानना चाहता है, जिसके द्वारा सर्वसाधारण लोग भी उन्हें सर्वव्यापी रूप से समझ सकें । असुरों तथा नास्तिकों सहित सामान्यजन कृष्ण को नहीं जान पाते, क्योंकि भगवान् अपनी योगमाया शक्ति से आच्छादित रहते हैं । दूसरी बात यह है, कि ये प्रश्न जनसामान्य के लाभ हेतु पूछे जा रहे हैं । उच्चकोटि का भक्त केवल अपने ही ज्ञान के प्रति चिंतित नहीं रहता अपितु सारी मानव जाति के ज्ञान के लिए भी रहता है । अतः अर्जुन वैष्णव या भक्त होने के कारण अपने दयालु भाव से सामान्यजनों के लिए भगवान् के सर्वव्यापक रूप के ज्ञान का द्वार खोल रहा है । वह कृष्ण को जानबूझ कर योगिन् कहकर सम्बोधित करता है, क्योंकि वे योगमाया शक्ति के स्वामी हैं, जिसके कारण वे सामान्यजन के लिए अप्रकट या प्रकट होते हैं । सामान्यजन, जिसे कृष्ण के प्रति कोई प्रेम नहीं है, कृष्ण के विषय में निरन्तर नहीं सोच सकता । वह तो भौतिक चिन्तन करता है । अर्जुन इस संसार के भौतिकतावादी लोगों की चिन्तन-प्रवृत्ति के विषय में विचार कर रहा है । केषु केषु च भावेषु शब्द भौतिक प्रकृति के लिए प्रयुक्त हैं (भाव का अर्थ है भौतिक वस्तु) । चूँकि भौतिकतावादी लोग कृष्ण के आध्यात्मिक स्वरूप को नहीं समझ सकते, अतः उन्हें भौतिक वस्तुओं पर चित्त एकाग्र करने की तथा यह देखने का प्रयास करने की सलाह दी जाती है कि कृष्ण भौतिक रूपों में किस प्रकार प्रकट होते हैं ।