सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।
न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥ १४ ॥
शब्दार्थ
सर्वम् – सब; एतत् – इस; ऋतम् – सत्य को; मन्ये – स्वीकार करता हूँ; यत् – जो; माम् – मुझको; वदसि – कहते हो; केशव – हे कृष्ण; न – कभी नहीं; हि – निश्चय ही; ते – आपके; भगवान् – हे भगवान्; व्यक्तिम् – स्वरूप को; विदुः – जान सकते हैं; देवाः – देवतागण; न – न तो; दानवाः – असुरगण ।
भावार्थ
हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ । हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं ।
तात्पर्य
यहाँ पर अर्जुन इसकी पुष्टि करता है कि श्रद्धाहीन तथा आसुरी प्रकृति वाले लोग कृष्ण को नहीं समझ सकते । जब देवतागण तक उन्हें नहीं समझ पाते तो आधुनिक जगत् के तथाकथित विद्वानों का क्या कहना ? भगवत्कृपा से अर्जुन समझ गया कि परम सत्य कृष्ण हैं और वे सम्पूर्ण हैं । अतः हमें अर्जुन के पथ का अनुसरण करना चाहिए । उसे भगवद्गीता का प्रमाण प्राप्त था । जैसा कि भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय में कहा गया है, भगवद्गीता के समझने की गुरु-परम्परा का हास हो चुका था, अतः कृष्ण ने अर्जुन से उसकी पुनःस्थापना की, क्योंकि वे अर्जुन को अपना परम प्रिय सखा तथा भक्त समझते थे । अतः जैसा कि गीतोपनिषद् की भूमिका में हमने कहा है, भगवद्गीता का ज्ञान परम्परा-विधि से प्राप्त करना चाहिए । परम्परा-विधि के लुप्त होने पर उसके सूत्रपात के लिए अर्जुन को चुना गया । हमें चाहिए कि अर्जुन का हम अनुसरण करें, जिसने कृष्ण की सारी बातें जान लीं । तभी हम भगवद्गीता के सार को समझ सकेंगे और तभी कृष्ण को भगवान् रूप में जान सकेंगे ।