श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥ १ ॥
शब्दार्थ
श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; भूयः – फिर; एव – निश्चय ही; महा-बाहो – हे बलिष्ट भुजाओं वाले; शृणु – सुनो; मे – मेरा; परमम् – परं; वचः – उपदेश; यत् – जो; ते – तुमको; अहम् – मैं; प्रीयमाणाय – अपना प्रिय मानकर; वक्ष्यामि – कहता हूँ; हित-काम्यया – तुम्हारे हित (लाभ) के लिए ।
भावार्थ
श्रीभगवान् ने कहा - हे महाबाहु अर्जुन! और आगे सुनो । चूँकि तुम मेरे प्रिय सखा हो, अतः मैं तुम्हारे लाभ के लिए ऐसा ज्ञान प्रदान करूँगा, जो अभी तक मेरे द्वारा बताये गये ज्ञान से श्रेष्ठ होगा ।
तात्पर्य
पराशर मुनि ने भगवान् शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है - जो पूर्ण रूप से षड्ऐश्वर्यों - सम्पूर्ण शक्ति, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण धन, सम्पूर्ण ज्ञान, सम्पूर्ण सौन्दर्य तथा सम्पूर्ण त्याग - से युक्त है, वह भगवान् है । जब कृष्ण इस धराधाम में थे, तो उन्होंने छहों ऐश्वर्यों का प्रदर्शन किया था, फलतः पराशर जैसे मुनियों ने कृष्ण को भगवान् रूप में स्वीकार किया है । अब अर्जुन को कृष्ण अपने ऐश्वर्यों तथा कार्य का और भी गुह्य ज्ञान प्रदान कर रहे हैं । इसके पूर्व सातवें अध्याय से प्रारम्भ करके वे अपनी शक्तियों तथा उनके कार्य करने के विषय में बता चुके हैं । अब इस अध्याय में वे अपने ऐश्वर्यों का वर्णन कर रहे हैं । पिछले अध्याय में उन्होंने दृढ़ विश्वास के साथ भक्ति स्थापित करने में अपनी विभिन्न शक्तियों के योगदान की चर्चा स्पष्टतया की है । इस अध्याय में पुनः वे अर्जुन को अपनी सृष्टियों तथा विभिन्न ऐश्वर्यों के विषय में बता रहे हैं ।
ज्यों-ज्यों भगवान् के विषय में कोई सुनता है, त्यों-त्यों वह भक्ति में रमता जाता है । मनुष्य को चाहिए कि भक्तों की संगति में भगवान् के विषय में सदा श्रवण करे, इससे उसकी भक्ति बढ़ेगी । भक्तों के समाज में ऐसी चर्चाएँ केवल उन लोगों के बीच हो सकती हैं, जो सचमुच कृष्णभावनामृत के इच्छुक हों । ऐसी चर्चाओं में अन्य लोग भाग नहीं ले सकते । भगवान् अर्जुन से स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि चूँकि तुम मुझे अत्यन्त प्रिय हो, अतः तुम्हारे लाभ के लिए ऐसी बातें कह रहा हूँ ।