वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।
गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ॥ २९ ॥
शब्दार्थ
वेपथुः – शरीर का कम्पन; च – भी; शरीरे – शरीर में; मे – मेरे; रोम-हर्षः – रोमांच; च – भी; जायते – उत्पन्न हो रहा है; गाण्डीवम् – अर्जुन का धनुष; गाण्डीव; स्त्रंसते – छूट या सरक रहा है; हस्तात् – हाथ से; त्वक् – त्वचा; च – भी; एव – निश्चय ही; परिदह्यते – जल रही है ।
भावार्थ
मेरा सारा शरीर काँप रहा है, मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं, मेरा गाण्डीव धनुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मेरी त्वचा जल रही है ।
तात्पर्य
शरीर में दो प्रकार का कम्पन होता है और रोंगटे भी दो प्रकार से खड़े होते हैं । ऐसा या तो आध्यात्मिक परमानन्द के समय या भौतिक परिस्थितियों में अत्यधिक भय उत्पन्न होने पर होता है । दिव्य साक्षात्कार में कोई भय नहीं होता । इस अवस्था में अर्जुन के जो लक्षण हैं वे भौतिक भय अर्थात् जीवन की हानि के कारण हैं । अन्य लक्षणों से भी यह स्पष्ट है; वह इतना अधीर हो गया कि उसका विख्यात धनुष गाण्डीव उसके हाथों से सरक रहा था और उसकी त्वचा में जलन उत्पन्न हो रही थी । ये सब लक्षण देहात्मबुद्धि से जन्य हैं ।