श्री सन्तोषी माता चालीसा
दोहा
श्री गणपति पद नाय सिर, धरि हिय शारदा ध्यान ।
सन्तोषी माँ की करूँ, कीरति सकल बखान ॥
चौपाई
जय संतोषी माँ जग जननी ।
खल मति दुष्ट दैत्य दल हननी ॥ १ ॥
गणपति देव तुम्हारे ताता ।
रिद्धि-सिद्धि कहलावहं माता ॥ २ ॥
मात-पिता की रहो दुलारी ।
कीरति केहि विधि कहूँ तुम्हारी ॥ ३ ॥
क्रीट मुकुट सिर अनुपम भारी ।
कानन कुण्डल की छवि न्यारी ॥ ४ ॥
सोहत अंग छटा छवि प्यारी ।
सुन्दर चीर सुन्हरी धारी ॥ ५ ॥
आप चतुर्भुज सुघड़ विशाला ।
धारण करहु गले वन माला ॥ ६ ॥
निकट है गौ अमित दुलारी ।
करहु मयूर आप असवारी ॥ ७ ॥
जानत सबही आप प्रभुताई ।
सुर नर मुनि सब करहिं बढ़ाई ॥ ८ ॥
तुम्हरे दरश करत क्षण माई ।
दुख दरिद्र सब जाय नसाई ॥ ९ ॥
वेद पुराण रहे यश गाई ।
करहु भक्त का आप सहाई ॥ १० ॥
ब्रह्मा ढ़िंग सरस्वती कहाई ।
लक्ष्मी रुप विष्णु ढ़िंग आई ॥ ११ ॥
शिव ढ़िंग गिरिजा रुप बिराजी ।
महिमा तीनों लोक में गाजी ॥ १२ ॥
शक्ति रुप प्रकट जग जानी ।
रुद्र रुप भई मात भवानी ॥ १३ ॥
दुष्ट दलन हित प्रकटी काली ।
जगमग ज्योति प्रचंड निराली ॥ १४ ॥
चण्ड मुण्ड महिशासुर मारे ।
शुम्भ निशुम्भ असुर हनि डारे ॥ १५ ॥
महिमा वेद पुरानन बरनी ।
निज भक्त के संकट हरनी ॥ १६ ॥
रुप शारदा हंस मोहिनी ।
निरंकार साकार दाहिनी ॥ १७ ॥
प्रकटाई चहुंदिश निज माया ।
कण कण में है तेज समाया ॥ १८ ॥
पृथ्वी सूर्य चन्द्र अरु तारे ।
तव इंगित क्रम बद्ध हैं सारे ॥ १९ ॥
पालन पोषण तुम्ही करता ।
क्षण भंगुर मे प्राण हरता ॥ २० ॥
बह्मा विष्णु तुम्हें निज ध्यावैं ।
शेश महेश सदा मन लावें ॥ २१ ॥
मनोकामना पूरण करनी ।
पाप काटनी भव भय तरनी ॥ २२ ॥
चित्त लगाय तुम्हें जो ध्याता ।
सो नर सुख सम्पत्ति है पाता ॥ २३ ॥
बन्ध्या नारि तुमहिं जो ध्यावै ।
पुत्र पुष्प लता सम वह पावै ॥ २४ ॥
पति वियोगी अति व्याकुल नारी ।
तुम वियोग अति व्याकुलयारी ॥ २५ ॥
कन्या जो कोई तुमको ध्यावैं ।
अपना मन वांछित वर पावै ॥ २६ ॥
शीलवान गुणवान हो मैया ।
अपने जन की नाव खिवैया ॥ २७ ॥
विधि पूर्वक व्रत जो कोई करहीं ।
ताहि अमित सुख सम्पत्ति भरहीं ॥ २८ ॥
गुड़ और चना भोग तोहि भावै ।
सेवा करै सो आनन्द पावै ॥ २९ ॥
श्रद्धा युक्त ध्यान जो धरहीं ।
सो नर निश्चय भव सों तरहीं ॥ ३० ॥
उद्यापन जो करहि तुम्हारा ।
ताको सहज करहु निस्तारा ॥ ३१ ॥
नारि सुहागिन व्रत जो करती ।
सुख सम्पति सों गोद भरती ॥ ३२ ॥
जो सुमिरत जैसी मन भावा ।
सो नर वैसो फ़ल पावा ॥ ३३ ॥
सोलह शुक्र जो व्रत मन धारे ।
ताके पूर्ण मनोरथ सारे ॥ ३४ ॥
सेवा करहि भक्ति युक्त जोई ।
ताको दूर दरिद्र दुख होई ॥ ३५ ॥
जो जन शरण माता तेरी आवै ।
ताकै क्षण में काज बनावै ॥ ३६ ॥
जय जय जय अम्बे कल्याणी ।
कृपा करौ मोरी महारानी ॥ ३७ ॥
जो यह पढ़ै मात चालीसा ।
तापे करहिं कृपा जगदीशा ॥ ३८ ॥
निज प्रति पाठ करै इक बारा ।
सो नर रहै तुहारा प्यारा ॥ ३९ ॥
नाम लेत ब्याधा सब भागे ।
रोग दोश कबहूँ नही लागे ॥ ४० ॥
दोहा
सन्तोषी माँ के सदा बन्दहूँ पग निश वास ।
पूर्ण मनोरथ हों सकल मात हरौ भव त्रास ॥