शिव चालीसा


॥ दोहा ॥

जय गणेश गिरिजा सुवन, मंगल मूल सुजान ।
कहत अयोध्यादास तुम, देहु अभय वरदान ॥

हे गिरिजा(माता पार्वती) पुत्र भगवान श्री गणेश आपकी जय हो, आप मंगलकारी हैं । अयोध्यादास की प्रार्थना है प्रभु कि आप ऐसा वरदान दें जिससे सारे भय समाप्त हो जांए ।

॥ चौपाई ॥

जय गिरिजा पति दीन दयाला ।
सदा करत सन्तन प्रतिपाला ॥ १ ॥
भाल चन्द्रमा सोहत नीके ।
कानन कुण्डल नागफनी के ॥ २ ॥

हे गिरिजा पति आपकी जय हो, आप दीन हीन पर दया बरसाने वाले हो । आप सदा संतो के प्रतिपालक रहे हैं । आपके मस्तक पर छोटा सा चंद्रमा शोभायमान है । आपने कानों में नागफनी के कुंडल डाल रखें हैं ।

अंग गौर शिर गंग बहाये ।
मुण्डमाल तन क्षार लगाए ॥ ३ ॥
वस्त्र खाल बाघम्बर सोहे ।
छवि को देखि नाग मुनि मोहे ॥ ४ ॥

आपकी जटाओं से ही गंगा बहती है, आपके गले में मुंडमाला है और आपके तन पर भभूत आपके दिव्य रूप को सुशोभित करती है । बाघ की खाल के वस्त्र भी आपके तन सुशोभित हैं, आपकी छवि को देखकर नागों और मुनियों के मन मोहित हो जाते हैं ।

  • मुंडमाला — माना जाता है भगवान शिव के गले में जो माला है उसके सभी शीष देवी सती के हैं, देवी सती का १०८वां जन्म राजा दक्ष प्रजापति की पुत्री के रुप में हुआ था । जब देवी सती के पिता प्रजापति ने भगवान शिव का अपमान किया तो उन्होंने यज्ञ के हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी तब भगवान शिव की मुंडमाला पूर्ण हुई । इसके बाद सती ने पार्वती के रुप में जन्म लिया व अमर हुई ।
मैना मातु की हवे दुलारी ।
बाम अंग सोहत छवि न्यारी ॥ ५ ॥
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी ।
करत सदा शत्रुन क्षयकारी ॥ ६ ॥

माता मैनावंती की दुलारी (माता पार्वती) आपके बांये अंग में हैं, यह छवि मन को हर्षित करती है । आपके हाथों में त्रिशूल आपकी छवि को और भी आकर्षक बनाता है । जिससे आपने हमेशा शत्रुओं का नाश किया है ।

नन्दि गणेश सोहै तहँ कैसे ।
सागर मध्य कमल हैं जैसे ॥ ७ ॥
कार्तिक श्याम और गणराऊ ।
या छवि को कहि जात न काऊ ॥ ८ ॥

आपके सानिध्य में नंदी व गणेश सागर के बीच खिले कमल के समान दिखाई देते हैं । कार्तिकेय व अन्य गणों की उपस्थिति से आपकी छवि ऐसी बनती है, जिसका वर्णन कोई नहीं कर सकता ।

देवन जबहीं जाय पुकारा ।
तब ही दुख प्रभु आप निवारा ॥ ९ ॥
किया उपद्रव तारक भारी ।
देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी ॥ १० ॥

हे भगवन, देवताओं ने जब भी आपको पुकारा है, तुरंत आपने उनके दुखों का निवारण किया । तारक (तारकासुर) जैसे राक्षस के उत्पात से परेशान देवताओं ने जब आपकी शरण ली, आपकी गुहार लगाई ।

  • तारकासुर — तारकासुर ने भगवान शिव के विवाह के पूर्व कठिन तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने तारकासुर को साक्षात दर्शन दिए । तारकासुर ने वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु कभी ना हो, इस पर भगवान शिव ने तारकासुर को प्रकृति का नियम समझते हुए कहा की जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी एक दिन निश्चित है । इस पर तारकासुर ने सोच विचार कर वरदान मांगा की उसकी मृत्यु केवल भगवान शिव के पुत्र के हाथों ही संभव हो । अमर होने के भ्रम से लिप्त उसकी बुद्धि उत्पात का कारण बनी जिससे देवताओं को भी संकटों का सामना करना पड़ा ।
तुरत षडानन आप पठायउ ।
लवनिमेष महँ मारि गिरायउ ॥ ११ ॥
आप जलंधर असुर संहारा ।
सुयश तुम्हार विदित संसारा ॥ १२ ॥

हे प्रभू आपने तुरंत तारकासुर को मारने के लिए षडानन को भेजा और उन्होने पलक झपकने की देरी में उस राक्षस को मार गिराया । आपने ही जलंधर नामक असुर का संहार किया । आपके कल्याणकारी यश को पूरा संसार जानता है ।

  • षडानन — भगवान शिव व माता पार्वती के पुत्र कार्तिकेय जिनके छः (षड) सर (आनन), बारह आँखें और बारह हाथ थे ।
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई ।
सबहिं कृपा कर लीन बचाई ॥ १३ ॥
किया तपहिं भागीरथ भारी ।
पुरब प्रतिज्ञा तासु पुरारी ॥ १४ ॥

हे शिव शंकर भोलेनाथ आपने ही त्रिपुरासुर के साथ युद्ध कर उनका संहार किया और सब पर अपने कृपा की । हे भगवन भागीरथ के तप से प्रसन्न होकर उनके पूर्वजों की आत्मा को शांति दिलाने की उनकी प्रतिज्ञा को आपने पूरा किया ।

  • त्रिपुरासुर — तारकासुर के तीन पुत्रों ने ब्रह्मा की भक्ति कर उनसे तीन अलग-अलग नगर बसाने का वरदान दिया मांगा जिस कारण उन्हें त्रिपुरासुर कहा गया । कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर का वध किया और तीनों नगरों को नष्ट कर दिया और इसलिए इस दिन को त्रिपुरारी पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है । तब से भगवान शिव को ‘त्रिपुरारी’ के नाम से भी जाना जाता है ।
दानिन महँ तुम सम कोउ नाहीं ।
सेवक स्तुति करत सदाहीं ॥ १५ ॥
वेद माहि महिमा तुम गाई ।
अकथ अनादि भेद नहिं पाई ॥ १६ ॥

हे प्रभू आपके समान दानी और कोई नहीं है, सेवक आपकी सदा प्रार्थना करते आए हैं । वेदों में भी आपकी महिमा का वर्णन है । परंतु अनादि होने के कारण आपका रहस्य कोई भी नहीं पा सका ।

प्रकटी उदधि मंथन में ज्वाला ।
जरत सुरासुर भए विहाला ॥ १७ ॥
कीन्ही दया तहं करी सहाई ।
नीलकण्ठ तब नाम कहाई ॥ १८ ॥

समुद्र मंथन से जो विषरूपी ज्वाला (कालकूट) निकली उससे देवता और राक्षस दोनों जलने लगे और विह्वल हो गए । तब आपने उस ज्वालारूपी विष का पान करके उनकी सहायता की । तभी से आपका नाम नीलकंठ पड़ गया ।

  • कालकूट — पौराणिक कथाओं के अनुसार सागर मंथन से निकला यह विष इतना खतरनाक था कि उसकी एक बूंद भी ब्रह्मांड के लिए विनाशकारी थी ।
पूजन रामचन्द्र जब कीन्हा ।
जीत के लंक विभीषण दीन्हा ॥ १९ ॥
सहस कमल में हो रहे धारी ।
कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी ॥ २० ॥

लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व श्रीराम ने आपकी पूजा के बाद ही विजय प्राप्त की और विभीषण को लंका का राजा बना दिया । जब श्री रामचन्द्रजी सहस्त्र कमलों से आपकी पूजा कर रहे थे तब आपने फूलों में रहकर उनकी परीक्षा ली ।

एक कमल प्रभु राखेउ जोई ।
कमल नयन पूजन चहं सोई ॥ २१ ॥
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर ।
भए प्रसन्न दिए इच्छित वर ॥ २२ ॥

हे महादेव! आपने अपनी माया से एक कमल का फूल छिपा दिया । तब रामचन्द्रजी ने नयनरूपी कमल से पूजा करने की बात सोची । इस प्रकार जब आपने रामचन्द्रजी की यह दृढ़ आस्था देखी तब आपने प्रसन्न होकर उन्हें मनचाहा वरदान दिया ।

जय जय जय अनन्त अविनाशी ।
करत कृपा सब के घटवासी ॥ २३ ॥
दुष्ट सकल नित मोहि सतावै ।
भ्रमत रहौं मोहि चैन न आवै ॥ २४ ॥

हे शिव आप अनन्त हैं, अनश्वर हैं, आपकी जय हो, जय हो, जय हो । आप सबके हृदय में रहकर उन पर कृपा करते हैं । दुष्ट विचार सदैव मुझे पीड़ित कर सताते रहते हैं और मैं भ्रमित रहता हूं जिसके कारण मुझे कहीं चैन नहीं मिलता है ।

त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारो ।
येहि अवसर मोहि आन उबारो ॥ २५ ॥
लै त्रिशूल शत्रुन को मारो ।
संकट ते मोहि आन उबारो ॥ २६ ॥

हे नाथ! मेरी रक्षा करो, मेरी रक्षा करो - इस प्रकार मैं आपको पुकार रहा हूं । आप आकर मुझे संकटों व कष्टों से उबारें । अपने त्रिशूल से मेरे शत्रुओं (काम, क्रोध, मोह, लोभ, अंहकार) का वध करके संकट से मेरा उद्धार उबारें ।

मात-पिता भ्राता सब होई ।
संकट में पूछत नहिं कोई ॥ २७ ॥
स्वामी एक है आस तुम्हारी ।
आय हरहु मम संकट भारी ॥ २८ ॥

माता-पिता, भाई-बंधु सब सुख के साथी हैं । दुखों में कोई साथ नहीं देता, संकट आने पर कोई नहीं पूछता । हे स्वामी! मुझे तो आपसे एक ही आशा है, आप मेरा घोर संकट दूर करें ।

धन निर्धन को देत सदा हीं ।
जो कोई जांचे सो फल पाहीं ॥ २९ ॥
अस्तुति केहि विधि करैं तुम्हारी ।
क्षमहु नाथ अब चूक हमारी ॥ ३० ॥

आप सदा निर्धनों को धन दिया है । जिसने जैसा फल चाहा, आपकी भक्ति से वैसा फल प्राप्त किया है । आपकी स्तुति हम किस विधि से करें, अगर कोई चूक होजाए तो हे नाथ, हमें क्षमा कर देना ।

शंकर हो संकट के नाशन ।
मंगल कारण विघ्न विनाशन ॥ ३१ ॥
योगी यति मुनि ध्यान लगावैं ।
शारद नारद शीश नवावैं ॥ ३२ ॥

आप ही कष्टों को नष्ट करने वाले हैं, सभी मंगलों (शुभ कार्यो) के कारण हैं तथा सब विध्न-बाधाओं को दूर करने वाले हैं । योगी, यति और मुनि सभी आपका ध्यान करते हैं । नारद मुनि और देवी सरस्वती (शारदा) भी आपको नमन करते हैं ।

नमो नमो जय नमः शिवाय ।
सुर ब्रह्मादिक पार न पाय ॥ ३३ ॥
जो यह पाठ करे मन लाई ।
ता पर होत है शम्भु सहाई ॥ ३४ ॥

“नमो नमो जय नमः शिवाय” इस पञ्चाक्षर मंत्र का जाप करके भी ब्रह्मा आदि देवता आपकी महिमा का पार नहीं पा सके । जो कोई भी मन लगा कर शिव चालीसा का पाठ करता है, हे शम्भु (शंकर भगवान) आप उसकी सहायता करते हैं ।

ॠनियां जो कोई हो अधिकारी ।
पाठ करे सो पावन हारी ॥ ३५ ॥
पुत्र होन कर इच्छा जोई ।
निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई ॥ ३६ ॥

जो कोई भक्त कर्ज में डूबा हुआ इस चालीसा का सच्चे मन से पाठ करता है, तो सुख-समृद्धि प्राप्त करता है । जो कोई भक्त पुत्र प्राप्ति की कामना से पाठ करता है, तो पुत्र-रत्न प्रसाद के रूप में प्राप्त करता है ।

पण्डित त्रयोदशी को लावे ।
ध्यान पूर्वक होम करावे ॥ ३७ ॥
त्रयोदशी व्रत करै हमेशा ।
ताके तन नहीं रहै कलेशा ॥ ३८ ॥

हर श्रद्धालु तथा भक्त ओ प्रत्येक माह की त्रयोदशी तिथि को विद्वान पण्डित को बुलाकर पूजा तथा हवन करवाना चाहिए । जो भक्त सदैव त्रयोदशी का व्रत करता है, उसके शरीर में कोई रोग नहीं रहता और किसी प्रकार का क्लेश भी मन में नहीं रहता ।

  • त्रयोदशी — चंद्रमास का तेरहवां दिन त्रयोदशी कहलाता है, हर चंद्रमास में दो त्रयोदशी आती हैं, एक कृष्ण पक्ष में व एक शुक्ल पक्ष में ।
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावे ।
शंकर सम्मुख पाठ सुनावे ॥ ३९ ॥
जन्म जन्म के पाप नसावे ।
अन्त धाम शिवपुर में पावे ॥ ४० ॥

धूप-दीप और नैवेध से पूजन करके शिवजी की मूर्ति या चित्र के सम्मुख बैठकर शिव चालीसा का श्रद्धापूर्वक पाठ करना चाहिए । इससे जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं और अन्त में मनुष्य शिवलोक में वास करने लगता है अथार्त मुक्त हो जाता है ।

कहैं अयोध्यादास आस तुम्हारी ।
जानि सकल दुःख हरहु हमारी ॥ ४१ ॥

अयोध्यादासजी कहते हैं कि शंकर भगवान, हमें आपसे ही आशा है । आप हमारी मनोकामनाएं पूरी करके हमारे दुखों को दूर करें ।

॥ दोहा ॥

नित्त नेम उठि प्रातः ही, पाठ करो चालीसा ।
तुम मेरी मनोकामना, पूर्ण करो जगदीश ॥
मगसिर छठि हेमन्त ॠतु, संवत चौसठ जान ।
स्तुति चालीसा शिवहि, पूर्ण कीन कल्याण ॥

हर रोज नियम से उठकर प्रात:काल में शिव चालीसा का पाठ करें और भगवान भोलेनाथ जो इस जगत के ईश्वर हैं, उनसे अपनी मनोकामना पूरी करने की प्रार्थना करें । संवत ६४ में मंगसिर मास की छठि तिथि और हेमंत ऋतु के समय में भगवान शिव की स्तुति में शिव चालीसा लोगों के कल्याण के लिए पूर्ण की गई ।


संवत ६४ में मंगसिर मास की छठि तिथि और हेमंत ऋतु के समय में भगवान शिव की स्तुति में शिव चालीसा लोगों के कल्याण के लिए अयोध्यादासजी द्वारा पूर्ण की गई । शिव चालीसा का पाठ करने से सुख-सौभाग्य में वृद्धि होती है । भगवान शिव की कृपा से सिद्धि-बुद्धि, धन-बल और ज्ञान-विवेक की प्राप्ति होती है । भगवान शिव के प्रभाव से इंसान धनी बनता है, वो तरक्की करता है । वो हर तरह के सुख का भागीदार बनता है, उसे कष्ट नहीं होता । भगवान शिव अलौकिक शक्ति के मालिक है, उनकी कृपा मात्र से ही इंसान सारी तकलीफों से दूर हो जाता है ।