हनुमान चालीसा


दोहा

श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि ।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि ॥
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन कुमार ।
बल बुधि विद्या देहु मोहि, हरहु कलेश विकार ॥

तुलसीदास जी अपने गुरु को नमन करते हुए उनके चरण कमलों की धूल से अपने मन रुपी दर्पण को निर्मल करते हैं । वे कहते हैं कि श्रीराम के बिमल जस यानि दोष रहित यश का वर्णन करता हूं, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रुपी चार फल प्रदान करने वाला है ।

स्वयं को बुद्धिहीन जानकर अर्थात पूरे समर्पण के साथ पवन-पुत्र श्री हनुमान का स्मरण करता हूं । हे महावीर मुझे बल, बुद्धि और बिद्या प्रदान करें व सारे कष्ट, रोग, विकार हर लें ।

  • दोहे के माध्यम से संदेश मिलता है कि हनुमान चालीसा के पाठ से पहले अपने मन का पवित्र होना जरुरी है । अपने गुरु, माता-पिता, भगवान को याद करने से मन स्वच्छ हो जाता है । फिर भगवान राम की महिमा का वर्णन करना भी काफी फलदायक होता है । फिर अपने को रामदूत हनुमान को समर्पित करें, श्री हनुमान की कृपा से आपको बल, बुद्धि और विद्या मिलेगी व साथ ही सारे पाप और कष्टों से भी बजरंग बलि मुक्ति दिलाएंगें ।

चौपाई

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर जय कपीस तिहुँ लोक उजागर ।
राम दूत अतुलित बल धामा अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ॥ १ ॥

हे ज्ञान व गुण के सागर श्री हनुमान आपकी जय हो । तीनों लोकों में वानरराज, वानरों के ईश्वर के रुप उजागर आपकी जय हो ।

आप अतुलनीय शक्ति के धाम भगवान श्रीराम के दूत, माता अंजनी के पुत्र व पवनसुत के नाम से जाने जाते हैं ।

महाबीर विक्रम बजरंगी कुमति निवार सुमति के संगी ।
कंचन बरन बिराज सुबेसा कानन कुंडल कुँचित केसा ॥ २ ॥

श्री हनुमान आप महान वीर हैं, बलवान हैं, आपके अंग बज्र के समान हैं । आप कुमति यानि खराब या नकारात्मक बुद्धि को दूर कर सुमति यानि सद्बुद्धि प्रदान करते हैं ।

आपका रंग स्वर्ण के समान है, और आप सुंदर वेश धारण करने वाले हैं, आपके कानों में कुंडल आपकी शोभा को बढ़ाते हैं व आपके बाल घुंघराले हैं ।

हाथ बज्र अरु ध्वजा बिराजे काँधे मूँज जनेऊ साजे ।
शंकर सुवन केसरी नंदन तेज प्रताप महा जगवंदन ॥ ३ ॥

आप हाथों में वज्र यानि गदा और ध्वज धारण करते हैं, आपके कंधे पर मूंज का जनेऊ आपकी शोभा को बढ़ाता है ।

आप शंकर सुवन यानि भगवान श्री शिव के अंश हैं व श्री केसरी के पुत्र हैं । आपके तेज और प्रताप की समस्त जगत वंदना करता है ।

विद्यावान गुनी अति चातुर राम काज करिबे को आतुर ।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया राम लखन सीता मनबसिया ॥ ४ ॥

आप विद्वान हैं, गुणी हैं और अत्यंत बुद्धिमान भी हैं, भगवान श्रीराम के कार्यों को करने के लिए हमेशा आतुर रहते हैं ।

आप श्रीराम कथा सुनने के रसिक हैं व भगवान राम, माता सीता व लक्ष्मण आपके हृदय में बसे हैं ।

  • प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया - इसी पंक्ति के आधार पर कहा जाता है कि आज भी कहीं पर रामकथा का आयोजन हो रहा होता है तो श्री हनुमान किसी न किसी रुप में वहां मौजूद रहते हैं व रामकथा सुनते हैं ।
सूक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा बिकट रूप धरि लंक जरावा ।
भीम रूप धरि असुर सँहारे रामचंद्र के काज सवाँरे ॥ ५ ॥

आपने माता सीता को अपना सूक्ष्म रुप दिखलाया तो वहीं विकराल रुप धारण कर लंका को जलाया ।

आपने विशाल रुप (भीम की तरह) धारण कर असुरों का संहार किया । भगवान श्री राम के कार्यों को भी आपने संवारा ।

लाय सजीवन लखन जियाए श्री रघुबीर हरषि उर लाए ।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई तुम मम प्रिय भरत-हि सम भाई ॥ ६ ॥

संजीवनी बूटी लाकर आपने लक्ष्मण के प्राण बचा लिये जिससे भगवान श्री राम ने आपको खुशी से हृदय से लगा लिया ।

भगवान राम ने आपकी बहुत प्रशंसा की व आपको अपने भाई भरत के समान प्रिय बतलाया ।

सहस बदन तुम्हरो जस गावै अस कहि श्रीपति कंठ लगावै ।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा नारद सारद सहित अहीसा ॥ ७ ॥

भगवान राम ने आपको गले लगाकर कहा कि आपका यश हजारों मुखों से गाने लायक है ।

श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सनत्कुमार आदि ऋषि मुनि ब्रह्मा आदि देवता, नारद जी सरस्वती जी और शेषनाग जी सभी आप का गुणगान करते हैं ।

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते कवि कोविद कहि सके कहाँ ते ।
तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा राम मिलाय राज पद दीन्हा ॥ ८ ॥

मृत्यु के देवता यम, धन के देवता कुबेर, दशों दिशाओं के रक्षक अर्थात दिगपाल आदि भी आपके यश का गुणगान करने में असमर्थ हैं ऐसे में कवि और विद्वान कैसे आपकी किर्ती का वर्णन कर सकते हैं ।

आपने तो भगवान राम से मिलाकर सुग्रीव पर उपकार किया, जिसके बाद उन्हें राज्य प्राप्त हुआ ।

तुम्हरो मंत्र बिभीषण माना लंकेश्वर भये सब जग जाना ।
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू लील्यो ताहि मधुर फ़ल जानू ॥ ९ ॥

आपकी बात को मानकर ही विभीषण लंका का राजा बना समस्त जग इस बारे में जानता है ।

जो सूरज यहां से जुग-सहस्त्र-जोजन की दूरी पर स्थित है जिस तक पंहुचने में ही हजारों युग लग जाएं उस सूरज को आपने एक मीठा फल समझ कर निगल लिया ।

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही जलधि लाँघि गए अचरज नाही ।
दुर्गम काज जगत के जेते सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ॥ १० ॥

इसमें कोई अचरज या आश्चर्य नहीं है कि आपने भगवान श्री राम की अंगूठी को मुंह में रखकर समुद्र को लांघ लिया ।

इस संसार में जितने में भी मुश्किल माने जाने वाले कार्य हैं, आपकी कृपा से बहुत आसान हो जाते हैं ।

राम दुआरे तुम रखवारे होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना तुम रक्षक काहू को डरना ॥ ११ ॥

भगवान श्री राम के द्वार पर आप रक्षक की तरह तैनात हैं, इसलिए आपकी अनुमति, आपकी आज्ञा के बिना कोई भगवान राम तक नहीं पंहुच सकता ।

तमाम तरह के सुख आपकी शरण लेते हैं । इसलिए जिसके रक्षक आप होते हैं, उसे किसी तरह से भी डरने की जरुरत नहीं होती ।

आपन तेज सम्हारो आपै तीनों लोक हाँक ते काँपै ।
भूत पिशाच निकट नहि आवै महाबीर जब नाम सुनावै ॥ १२ ॥

हे बजरंग बली महावीर हनुमान, आपके तेज को बस आप ही संभाल सकते हों, आपकी ललकार से तीनों लोक कांपते हैं ।

हे महावीर जहां भी आपका नाम लिया जाता है, भूत-पिशाचों की पास भटकने की भी औकात नहीं होती, अर्थात भूत-प्रेत आदि निकट नहीं आते ।

नासै रोग हरे सब पीरा जपत निरंतर हनुमत बीरा ।
संकट ते हनुमान छुडावै मन क्रम वचन ध्यान जो लावै ॥ १३ ॥

हे वीर हनुमान जो निरंतर आपके नाम का जाप करते हैं उनके सारे रोग नष्ट हो जाते हैं आप उनके सारे दर्द को हर लेते हैं ।

मन, वचन और कर्म से जो भी आपका ध्यान लगाता है आप उसे हर संकट से मुक्ति दिलाते हैं ।

सब पर राम तपस्वी राजा तिनके काज सकल तुम साजा ।
और मनोरथ जो कोई लावै सोइ अमित जीवन फल पावै ॥ १४ ॥

तपस्वी राजा भगवान श्री रामचंद्र जी सबसे श्रेष्ठ हैं, आपने उनके सभी कार्य सहजता से किए ।

जो कोई भी अपने मन की ईच्छा सच्चे मन से आपके सामने रखता है, वह अनंत व असीम जीवन का फल प्राप्त करता है ।

चारों जुग परताप तुम्हारा है परसिद्ध जगत उजियारा ।
साधु संत के तुम रखवारे असुर निकंदन राम दुलारे ॥ १५ ॥

चारों युगों (सतयुग, द्वापर, त्रेता, और कलयुग) में आपकी महानता है । आपका प्रकाश समस्त संसार में प्रसिद्ध है ।

आप साधु संतों के रखवाले और असुरों का विनाश करने वाले श्री राम के दुलारे हैं अर्थात श्री राम के बहुत प्रिय हैं ।

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता अस बर दीन जानकी माता ।
राम रसायन तुम्हरे पासा सदा रहो रघुपति के दासा ॥ १६ ॥

हे श्री हनुमान, जानकी (सीता माता) ने आपको वरदान दिया है । जिससे आप आठों सिद्धियां और नौ निधियां किसी को भी दे सकते हैं ।

आपके पास राम नाम का रसायन है, आप सदा से भगवान श्री राम के सेवक रहे हैं ।

तुम्हरे भजन राम को पावै जनम जनम के दुख बिसरावै ।
अंतकाल रघुवरपुर जाई जहाँ जन्म हरिभक्त कहाई ॥ १७ ॥

आपका भजन करके ही भगवान राम को प्राप्त किया जा सकता है व आपके स्मरण मात्र से ही जन्मों के पाप कट जाते हैं, दुख मिट जाते हैं ।

आपकी शरण लेकर ही मृत्यु पर्यन्त भगवान श्री राम के धाम, यानि बैकुण्ठ में जाया जा सकता है, जहां पर जन्म लेने मात्र से हरि-भक्त कहलाते हैं ।

और देवता चित्त ना धरई हनुमत सेई सर्व सुख करई ।
संकट कटै मिटै सब पीरा जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ॥ १८ ॥

जब आपकी सेवा आपके स्मरण से सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं, तो फिर और देवताओं में ध्यान लगाने की जरुरत नहीं है ।

हे वीर हनुमान जो कोई भी आपके नाम का स्मरण करता है, उसके सारे संकट कट जाते हैं, सारे दुख, सारी तकलीफें मिट जाती हैं ।

जै जै जै हनुमान गुसाईँ कृपा करहु गुरु देव की नाई ।
जो सत बार पाठ कर कोई छूटहि बंदि महा सुख होई ॥ १९ ॥

हे भक्तों के रक्षक स्वामी श्री हनुमान जी, आपकी जय हो, जय हो, जय हो । आप मुझ पर श्री गुरुदेव की तरह कृपा करें ।

जो कोई भी सौ बार इस चालीसा का पाठ करेगा, उसके सारे बंधन, सारे कष्ट दूर हो जाएंगें व महासुख की प्राप्ति होगी, अर्थात उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी ।

जो यह पढ़े हनुमान चालीसा होय सिद्धि साखी गौरीसा ।
तुलसीदास सदा हरि चेरा कीजै नाथ हृदय मँह डेरा ॥ २० ॥

जो कोई भी इस हनुमान चालीसा का पाठ करेगा, उसकी मनोकामनाएं पूरी होंगी । उसको सिद्धियां प्राप्त होंगी, इसके साक्षी स्वयं शंकर भगवान हैं ।

महाकवि गौस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि वे सदा भगवान श्री राम के सेवक रहे हैं, इसलिए हे स्वामी आप मेरे हृदय में निवास कीजिये ।

दोहा

पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप ।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ॥

हे पवनसुत, हे संकटों को हरने वाले संकट मोचन, हे कल्याणकारी, हे देवराज आप भगवान श्री राम, माता सीता और श्री लक्ष्मण सहित मेरे हृद्य में निवास करें ।


हनुमान चालीसा अवधी में लिखी एक काव्यात्मक कृति है जिसमें प्रभु राम के महान भक्त हनुमान के गुणों एवं कार्यों का चालीस चौपाइयों में वर्णन है । यह अत्यन्त लघु रचना है जिसमें पवनपुत्र श्री हनुमान जी की सुन्दर स्तुति की गई है । इसमें बजरंग बली‍ की भावपूर्ण वन्दना तो है ही, श्रीराम का व्यक्तित्व भी सरल शब्दों में उकेरा गया है । ‘चालीसा’ शब्द से अभिप्राय ‘चालीस’ (४०) का है क्योंकि इस स्तुति में ४० छन्द हैं (परिचय के २ दोहों को छोड़कर) । इसके रचयिता गोस्वामी तुलसीदास हैं ।

वैसे तो पूरे भारत में यह लोकप्रिय है किन्तु विशेष रूप से उत्तर भारत में यह बहुत प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है । लगभग सभी हिन्दुओं को यह कण्ठस्थ होती है । सनातन धर्म में हनुमान जी को वीरता, भक्ति और साहस की प्रतिमूर्ति माना जाता है । शिव जी के रुद्रावतार माने जाने वाले हनुमान जी को बजरंगबली, पवनपुत्र, मारुतीनन्दन, केसरी नन्दन , महावीर आदि नामों से भी जाना जाता है । मान्यता है कि हनुमान जी अजर-अमर हैं । हनुमान जी को प्रतिदिन याद करने और उनके मन्त्र जाप करने से मनुष्य के सभी भय दूर होते हैं । कहा जाता है कि हनुमान चालीसा के पाठ से भय दूर होता है, क्लेश मिटते हैं । इसके गम्भीर भावों पर विचार करने से मन में श्रेष्ठ ज्ञान के साथ भक्तिभाव जाग्रत होता है ।


जुग सहस्त्र जोजन

सूर्य और पृथ्वी के बीच दूरी:

1 जुग = 1 महायुग = 4 युग = 12,000 दिव्य वर्ष
1 सहस्त्र = 1000
1 योजन = 12.8 किलोमीटर
जुग-सहस्त्र-जोजन = 12000 x 1000 x 12.8 किलोमीटर (15.36 करोड़ किलोमीटर)
नासा के अनुसार यह दूरी लगभग 14.96 करोड़ किलोमीटर है ।

अष्ट सिद्धियां

आठ प्रकार की रहस्यवादी शक्तियां:

  • अणिमा सिद्धि — की प्राप्ति होने पर साधक अपना आकार अणु के समान छोटा बना सकता है ।
  • महिमा सिद्धि — के द्वारा साधक अपने शरीर को पर्वत के समान विशाल बना सकता है ।
  • गरिमा सिद्धि — के द्वारा साधक अपने शरीर को जितना चाहे उतना भारी बना सकता है ।
  • लघिमा सिद्धि — के द्वारा साधक अपने शरीर को रुई के समान हल्का बना कर हवा में उड़ा सकता है ।
  • प्राप्ति सिद्धि — के द्वारा साधक किसी भी वस्तु को प्राप्त कर सकता है । साधक रेगिस्तान में भी पानी प्राप्त कर सकता है ।
  • प्रकाम्या सिद्धि — के द्वारा साधक कोई भी रूप धारण कर सकता है और इच्छाओं को पूर्ण कर सकता है ।
  • इशित्व सिद्धि — के द्वारा साधक पदार्थों को अपनी इच्छा अनुसार प्रयोग कर सकता है । साधक पदार्थ को उत्पन्न तथा नष्ट कर सकता है ।
  • वशित्व सिद्धि — के द्वारा साधक जीव-जंतु तथा जड़ चेतन आदि को स्वयं के वश में कर सकता है । प्रकृति तथा परिस्थितियों को भी वश में कर सकता है ।

नौ निधियां

निधि का अर्थ होता ऐसा धन जो अत्यंत दुर्लभ हो । इनमे से कई का वर्णन युधिष्ठिर ने भी महाभारत में किया है । कुबेर को इन निधियों की प्राप्ति महादेव से हुई है । उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ना केवल भगवान शंकर ने उन्हें इन निधियों का दान दिया अपितु उन्हें देवताओं के कोषाध्यक्ष का पद भी प्रदान किया ।

  • पद्म निधि — जिस व्यक्ति के पास पद्म निधि होती है वो सात्विक गुणों से युक्त होता है । ये भी कहा जा सकता है कि पद्म निधि को प्राप्त करने के लिए मनुष्य में सात्विक वृत्ति होना आवश्यक है । चूँकि ये निधि सात्विक तरीके से ही प्राप्त की जा सकती है इसी कारण इसका अस्तित्व बहुत समय तक रहता है । कहा जाता है कि पद्म निधि मनुष्य के कई पीढ़ियों को तार देती है और उन्हें कभी धन की कमी नहीं रहती । ये धन इतना अधिक होता है कि मनुष्य उसे पीढ़ी दर पीढ़ी इस्तेमाल करता रहता है किन्तु तब भी ये समाप्त नहीं होती । सात्विक गुणों से संपन्न व्यक्ति इस धन का संग्रह तो करता ही है किन्तु साथ ही साथ उसी उन्मुक्त भाव से उसका दान भी करता है । वैसे इस निधि के उपयोग के लिए पीढ़ी का वर्णन तो नहीं दिया गया है किन्तु फिर भी कहा जाता है कि पद्म निधि मनुष्य की २१ पीढ़ियों तक चलता रहता है ।
  • महापद्म निधि — ये निधि भी पद्म निधि के सामान ही होती है किन्तु इसका प्रभाव ७ पीढ़ियों तक रहता है । उसके बाद की पीढ़ियाँ इस निधि का लाभ नहीं ले सकती । पद्म की तरह महापद्म निधि भी सात्विक मानी जाती है और जिस मनुष्य के पास ये निधि होती है वो अपने संग्रह किये हुए धन का दान धार्मिक कार्यों में करता है । कुल मिलकर ये कहा जा सकता है कि महापद्म निधि प्राप्त मनुष्य दानी तो होता है किन्तु उसकी ये निधि केवल ७ पीढ़ियों तक उसके परिवार में रहती है । किन्तु इन सब के पश्चात भी ये निधि या धन इतना अधिक होता है कि अगर मनुष्य दोनों हांथों से भी इसे व्यय करे तो भी पीढ़ी दर पीढ़ी (सात) तक चलता रहता है । इस निधि को प्राप्त व्यक्ति में रजोगुण अत्यंत ही कम मात्रा में रहता है इसी कारण धारक धर्मानुसार इसे व्यय करता है ।
  • नील निधि — नील निधि को भी सात्विक निधि माना जाता है और इसे प्राप्त व्यक्ति सात्विक तेज से युक्त होता है किन्तु उसमे रजगुण की भी मात्रा रहती है । हालाँकि सत एवं रज गुणों में सतगुण की अधिकता होती है इसी कारण इस निधि को प्राप्त करने वाला व्यक्ति सतोगुणी ही कहलाता है । ये निधि मनुष्य की तीन पीढ़ियों तक उसके पास रहती है । उसके बाद की पीढ़ियों को इसका फल नहीं मिल पाता । सामान्यतः ऐसी निधि व्यापार के माध्यम से ही प्राप्त होती है इसीलिए इसे रजोगुणी संपत्ति भी कहा जाता है । लेकिन चूँकि साधक इस संपत्ति का प्रयोग जनहित में करता है इसीलिए इसे मधुर स्वाभाव वाली निधि भी कहा गया है । रजोगुण की प्रधानता भी होने के कारण ये निधि ३ पीढ़ी से आगे नहीं बढ़ सकती । इसे प्राप्त करने वाले साधक में दान की वैसी भावना नहीं होती जैसी पद्म एवं महापद्म के धारकों में होती है । किन्तु फिर भी नील निधि का धारक धर्म के लिए कुछ दान तो अवश्य करता है ।
  • मुकुंद निधि — ये निधि रजोगुण से संपन्न होती है और इसे प्राप्त करने वाला मनुष्य भी रजोगुण से समपन्न होता है । ऐसा व्यक्ति सदा केवल धन के संचय करने में लगा रहता है । यही कारण है कि इसे राजसी स्वाभाव वाली निधि कहा गया है । इस निधि को प्राप्त साधक अधिकतर भोग-विलास में लिप्त होता है । हालाँकि वो सम्पूर्णतः राजसी स्वाभाव का नहीं होता और उसमें सतगुण का भी योग होता है किन्तु दोनों गुणों में रजगुण की अत्यधिक प्रधानता रहती है । ये निधि १ पीढ़ी तक ही रहती है, अर्थात उस व्यक्ति के बाद केवल उसकी संतान ही उस निधि का उपयोग कर सकती है । उसके पश्चात आने वाली पीढ़ी के लिए ये निधि किसी काम की नहीं रहती । इस निधि को प्राप्त करने वाले धारक में दान की भावना नहीं होती । हालाँकि उसे बार-बार धर्म का स्मरण दिलाने पर वो साधक भी दान करता है ।
  • नन्द निधि — इस निधि का धारक राजसी एवं तामसी गुणों के मिश्रण वाला होता है । वह अकेला अपने कुल का आधार होता है । ये निधि साधक को लम्बी आयु एवं निरंतर तरक्की प्रदान करती है । ऐसा व्यक्ति अपनी प्रशंसा से अत्यंत प्रसन्न होता है और प्रशंसा करने वाले को आर्थिक रूप से सहायता भी कर देता है । अधिकतर ऐसे साधक अपने परिवार की नींव होता है और अपने परिवार में धन संग्रह करने वाला एकलौता व्यक्ति होता है । इस निधि के साधक के पास धन तो अथाह होता है किन्तु तामसी गुणों के कारण उसका नाश भी जल्दी होता है । पर साधक अपने पुत्र पौत्रों के लिए बहुत धन संपत्ति छोड़ कर जाता है ।
  • मकर निधि — इस निधि के धारक में योद्धा के गुण अधिक होते हैं एवं वो अस्त्रों एवं शस्त्रों का संग्रह करने वाला होता है । इस निधि में तामसी गुण अधिक होते हैं । इस निधि को प्राप्त व्यक्ति वीर होता है एवं सदैव युद्ध के लिए तत्पर होता है । वो राज्य के राजा एवं शासन के विरुद्ध जाने वाला होता है । ऐसे व्यक्ति को अगर अपनी पैतृक संपत्ति ना भी मिले तो भी वो अपनी वीरता से अपने लिए बहुत धन अर्जित करता है ।
  • कच्छप निधि — इस निधि को प्राप्त साधक तामस गुण वाला होता है । स्वाभाव से वह अत्यंत ही कृपण होता है । वो ना तो स्वयं अपनी संपत्ति का उपयोग करता है और ना ही किसी अन्य को उसका उपयोग करने देता है । ऐसे साधक के पास संपत्ति तो अथाह होती है किन्तु वो अपनी समस्त संपत्ति को छुपा कर रखता है । सांकेतिक रूप में कहा जाता है कि ऐसा व्यक्ति अपने धन पर एक सर्प की भांति कुंडली मार कर रहता है और उसकी रक्षा करता है । साधक के पुत्र-पौत्रादि को उसके मृत्यु के पश्चात ही उसकी संपत्ति प्राप्त होती है ।
  • शंख निधि — मुकुंद निधि की भांति ही शंख निधि एक पीढी तक रहती है । इस निधि को प्राप्त साधक केवल स्वयं की ही चिंता करता है सारी संपत्ति को स्वयं ही भोगता है । व्यक्तिगत रूप से उसके पास धन तो बहुत होता है किन्तु उसकी कृपणता के कारण उसके परिवार वाले दरिद्रता में ही जीवन जीते है । ऐसा साधक बहुत स्वार्थी होता है और अपनी समस्त संपत्ति का उपयोग स्वयं ही करता है ।
  • खर्व निधि — इसे मिश्रित निधि भी कहते हैं । ऐसी मान्यता है कि नौ निधियों में केवल इस खर्व निधि को छोड़कर अन्य ८ निधियां के “पद्मिनी” नामक विद्या के सिद्ध होने पर प्राप्त हो जाती है । खर्व निधि विशेष ही क्यूंकि ये अन्य सभी ८ निधियों का मिश्रण मानी जाती है । यही कारण है कि इसके धारक के स्वाभाव में भी मिश्रित गुण प्रधान होते हैं । उसके कार्यों और स्वभाव के बारे में भविष्यवाणी नहीं की जा सकती । समय अगर सही हो तो साधक अपना सारा धन और संपत्ति दान भी कर सकता है और यदि समय अनुकूल ना हो तो स्वयं उसके परिवार के सदस्यों को भी उसकी संपत्ति नहीं मिलती । इस निधि में सत, रज और तम तीनो गुणों का मिश्रण होता है ।