॥ श्रीहरिः ॥

निवेदन

श्रीरामचरितमानस का स्थान हिंदी-साहित्य में ही नहीं, जगत् के साहित्य में निराला है । इसके जोड़ का ऐसा ही सर्वाङ्गसुन्दर, उत्तम काव्य के लक्षणों से युक्त, साहित्य के सभी रसों का आस्वादन कराने वाला, काव्यकला की दृष्टि से भी सर्वोच्च कोटि का तथा आदर्श गार्हस्थ्य-जीवन, आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन, आदर्श पातिव्रतधर्म, आदर्श भ्रातृधर्म के साथ-साथ सर्वोच्च भक्ति, ज्ञान, त्याग, वैराग्य तथा सदाचार की शिक्षा देने वाला, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध और युवा - सब के लिये समान उपयोगी एवं सर्वोपरि सगुण-साकार भगवान् की आदर्श मानवलीला तथा उनके गुण, प्रभाव, रहस्य तथा प्रेम के गहन तत्त्व को अत्यन्त सरल, रोचक एवं ओजस्वी शब्दों में व्यक्त करने वाला कोई दूसरा ग्रन्थ हिंदी-भाषा में ही नहीं, कदाचित् संसार की किसी भाषा में आज तक नहीं लिखा गया । यही कारण है कि जितने चाव से गरीब-अमीर, शिक्षित-अशिक्षित, गृहस्थ-संन्यासी, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध - सभी श्रेणी के लोग इस ग्रन्थरत्न को पढ़ते हैं, उतने चाव से और किसी ग्रन्थ को नहीं पढ़ते तथा भक्ति, ज्ञान, नीति, सदाचार का जितना प्रचार जनता में इस ग्रन्थ से हुआ है, उतना कदाचित् और किसी ग्रन्थ से नहीं हुआ ।

जिस ग्रन्थ का जगत् में इतना मान हो, उसके अनेकों संस्करणों का छपना तथा उस पर अनेकों टीकाओं का लिखा जाना स्वाभाविक ही है । इस नियम के अनुसार श्रीरामचरितमानस के भी आज तक सैकड़ों संस्करण छप चुके हैं । इस पर सैकड़ों ही टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं । हमारे गीता-पुस्तकालय में रामायण-सम्बन्धी सैकड़ों ग्रन्थ भिन्न-भिन्न भाषाओं के आ चुके हैं । अब तक अनुमानतः इसकी लाखों प्रतियाँ छप चुकी होंगी । आये दिन इसका एक-न-एक नया संस्करण देखने को मिलता है और उसमें अन्य संस्करणों की अपेक्षा कोई-न-कोई विशेषता अवश्य रहती है । इसके पाठ के सम्बन्ध में भी रामायणी विद्वानों में बहुत मतभेद है, यहाँ तक कि कई स्थलों में तो प्रत्येक चौपाई में एक-न-एक पाठभेद भिन्न-भिन्न संस्करणों में मिलता है । जितने पाठभेद इस ग्रन्थ के मिलते हैं, उतने कदाचित् और किसी प्राचीन ग्रन्थ के नहीं मिलते । इससे भी इसकी सर्वोपरि लोकप्रियता सिद्ध होती है ।

इसके अतिरिक्त रामचरितमानस एक आशीर्वादात्मक ग्रन्थ है । इसके प्रत्येक पद्य को श्रद्धालु लोग मन्त्रवत् आदर देते हैं और इसके पाठ से लौकिक एवं पारमार्थिक अनेक कार्य सिद्ध करते हैं । यही नहीं, इसका श्रद्धापूर्वक पाठ करने तथा इसमें आये हुए उपदेशों का विचारपूर्वक मनन करने एवं उनके अनुसार आचरण करने से तथा इसमें वर्णित भगवान् की मधुर लीलाओं का चिन्तन एवं कीर्तन करने से मोक्षरूप परम पुरुषार्थ एवं उससे भी बढ़कर भगवत्प्रेम की प्राप्ति आसानी से की जा सकती है । क्यों न हो, जिस ग्रन्थ की रचना गोस्वामी तुलसीदासजी-जैसे अनन्य भगवद्भक्त के द्वारा, जिन्होंने भगवान् श्रीसीतारामजी की कृपा से उनकी दिव्य लीलाओं का प्रत्यक्ष अनुभव करके यथार्थ रूप में वर्णन किया है, साक्षात् भगवान् श्रीगौरीशंकरजी की आज्ञा से हुई तथा जिस पर उन्हीं भगवान् ने ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ लिखकर अपने हाथ से सही की, उसका इस प्रकार का अलौकिक प्रभाव कोई आश्चर्य की बात नहीं है । ऐसी दशा में इस अलौकिक ग्रन्थ का जितना भी प्रचार किया जायगा, जितना अधिक पठन-पाठन एवं मनन-अनुशीलन होगा, उतना ही जगत् का मङ्गल होगा - इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । वर्तमान समय में तो, जब सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है, सारा संसार दुःख एवं अशान्ति की भीषण ज्वाला से जल रहा है, जगत् के कोने-कोने में मार-काट मची हुई है और प्रतिदिन हजारों मनुष्यों का संहार हो रहा है, करोड़ों-अरबों की सम्पत्ति एक-दूसरे के विनाश के लिये खर्च की जा रही है, विज्ञान की सारी शक्ति पृथ्वी को श्मशान के रूप में परिणत करने में लगी हुई है, संसार के बड़े-से-बड़े मस्तिष्क संहार के नये-नये साधनों को ढूंढ़ निकालने में व्यस्त हैं, जगत् में सुख-शान्ति एवं प्रेम का प्रसार करने तथा भगवत्कृपा का जीवन में अनुभव करने के लिये रामचरितमानस का पाठ एवं अनुशीलन परम आवश्यक है ।

इसी दृष्टि से गीता की भाँति मानस के भी कई छोटे-बड़े यथासाध्य शुद्ध, प्रामाणिक, सस्ते, सचित्र एवं सटीक संस्करण निकालने का आयोजन गीताप्रेस के द्वारा किया जा रहा है । इस संस्करण में दोहे-चौपाइयों का अर्थ वही है, जो ‘मानसाङ्क’ में था । पाठ एवं अर्थ की भूलों के लिये हम अपने विज्ञ पाठक महानुभावों से क्षमा-प्रार्थना करते हैं और भगवान की वस्तु विनम्र भाव से भगवान् की सेवा में अर्पण करते हैं ।

विनीत - प्रकाशक