यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे ।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥ ५९ ॥

शब्दार्थ

यत् - यदि; अहंकारम् - मिथ्या अहंकार की; आश्रित्य - शरण लेकर; न योत्स्ये - मैं नहीं लडूँगा; इति - इस प्रकार; मन्यसे - तुम सोचते हो; मिथ्या एष - तो वह सब झूठ है; व्यवसायः - संकल्प; ते - तुम्हारा; प्रकृतिः - भौतिक प्रकृति; त्वाम् - तुमको; नियोक्ष्यति - लगा लेगी ।

भावार्थ

यदि तुम मेरे निर्देशानुसार कर्म नहीं करते और युद्ध में प्रवृत्त नहीं होते हो, तो तुम कुमार्ग पर जाओगे । तुम्हें अपने स्वभाववश युद्ध में लगना होगा ।

तात्पर्य

अर्जुन एक सैनिक था और क्षत्रिय स्वभाव लेकर जन्मा था । अतएव उसका स्वाभाविक कर्तव्य था कि वह युद्ध करे । लेकिन मिथ्या अहंकारवश वह डर रहा था कि अपने गुरु, पितामह तथा मित्रों का वध करके वह पाप का भागी होगा । वास्तव में वह अपने को अपने कर्मों का स्वामी जान रहा था, मानो वही ऐसे कर्मों के अच्छे-बुरे फलों का निर्देशन कर रहा हो । वह भूल गया कि वहाँ पर साक्षात् भगवान् उपस्थित हैं और उसे युद्ध करने का आदेश दे रहे हैं । यही है बद्धजीव की विस्मृति । परमपुरुष निर्देश देते हैं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है और मनुष्य को जीवन-सिद्धि प्राप्त करने के लिए केवल कृष्णभावनामृत में कर्म करना है । कोई भी अपने भाग्य का निर्णय ऐसे नहीं कर सकता जैसे भगवान् कर सकते हैं । अतएव सर्वोत्तम मार्ग यही है कि परमेश्वर से निर्देश प्राप्त करके कर्म किया जाय । भगवान् या भगवान् के प्रतिनिधि स्वरूप गुरु के आदेश की वह कभी भी उपेक्षा न करे । भगवान् के आदेश को बिना किसी हिचक के पूरा करने के लिए वह कर्म करे - इससे सभी परिस्थितियों में सुरक्षित रहा जा सकेगा ।